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उसने स्नान आह्निकादि समाप्त कर लिए तब कपिल अपनी पत्नी से बोला-'मेरे और पिताजी के लिए अन्यत्र खाने की व्यवस्था करो।' जब पिता पुत्र एक साथ खाने नहीं बैठे तो सत्यभामा का सन्देह और दृढ़ हो गया। कारण उच्चकुल का व्यक्ति हीन कुल के व्यक्ति के साथ आहार नहीं करता। अपने श्वसुर के अनिन्दित व्यवहार से वह यह भी समझ गई कि उसका श्वसुर उच्चकुल जात है। तब उसने उसकी पिता, गुरु और देवता की तरह भक्ति की।
(श्लोक ६१-६६) एक दिन गुप्त रूप से उसने अपने श्वसुर को ब्रह्महत्या की शपथ देकर पूछा, 'पिताजी, आपके इस पुत्र का उभय कुल पवित्र है या कोई दोष है ? आप मुझे सत्य बताएँ।' धरणीजट स्वभाव से ही सरल था और शपथ भङ्ग के भय से उसने उसे सत्य बता डाला। तदुपरान्त कपिल से बिदा लेकर अपने गाँव लौट गया।
(श्लोक ६७-७०) तब सत्यभामा ने राजा श्रीसेन के पास जाकर निवेदन किया —'दुर्भाग्य से यह नीच जाति का व्यक्ति मेरा पति बन गया है । किन्तु; अब बाघ के हाथ से गाय की तरह, राहु के ग्रास से चन्द्र की तरह, बाज के पंजों से कबूतर की तरह आप मुझे उससे मुक्त कराएँ। उससे मुक्त होकर मैं सम्यक चारित्र ग्रहण करना चाहती हूं। पूर्व जन्मकृत् असद् कर्मों के कारण मैं अब तक छलना का शिकार बनी रही।'
(श्लोक ७१-७३) तभी श्रीसेन ने कपिल को बुलवाया और कहा, 'सत्यभामा को सम्यक चारित्र पालन करने के लिए तुम मुक्त कर दो। अन्य की स्त्री को जबरदस्ती ग्रहण करने पर वह जिस प्रकार विरक्त रहती है उसी प्रकार विरक्त बनी सत्यभामा के साथ तुम क्या सुख भोग करोगे ?' कपिल बोला, 'उसे छोड़कर मैं एक मुहूर्त भी जीवित नहीं रह सकता। वह मेरी सर्वस्व व जीवनदायिनी है। मैं क्या कभी उसका परित्याग कर सकता हूं? परित्याग करना और करवाना गणिकाओं के लिए ही प्रयोज्य है।' इस पर सत्यभामा क्र द्ध होकर बोली-'तुम यदि मेरा परित्याग नहीं करोगे तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगी, जल में डूब मरूंगी।' तब राजा कपिल से बोले, 'उसको मरने के लिए विवश मत करो। वह कुछ दिन मेरे