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राजाओं सहित धर्मरुचि मुनि से दीक्षा ग्रहण कर ली। तदुपरान्त उन्होंने ध्यान द्वारा पथ के कर्म रूपी कण्टकों को दग्ध कर सरल पथ से लोकाग्र स्थित दुर्ग को जय कर लिया अर्थात् मुक्ति को प्राप्त कर लिया ।
(श्लोक १३१-१३२) श्री सेन आदि चारों युगलिक मृत्यु के पश्चात् प्रथम देवलोक सौधर्म कल्प में देव रूप से उत्पन्न हुए। (श्लोक १३३)
इस भरत क्षेत्र के वैताढय पर्वत के ऊपर रथनुपुर चक्रवाल नामक एक नगर था। वहाँ विभिन्न विद्याओं के ज्ञाता मानो इन्द्र के अनुज हों ऐसे विद्याधर राजा ज्वलनजटि रहते थे। मार्तण्ड की तरह देदीप्यमान उनका पुत्र अर्ककीर्ति शत्रुराज्य की लक्ष्मी द्वारा मानो युवराज निर्वाचित हुआ था। अर्ककीर्ति से छोटी स्वयंप्रभा नामक उनके एक कन्या थी। वह चन्द्र की चन्द्रिका की भांति सभी को प्रिय लगती थी। प्रजापति के पूत्र और अचल के अनुज पोतनपुर के अधिपति त्रिपृष्ठ ने उससे विवाह किया था। उन्होंने परितुष्ट होकर वैताढय की उभय श्रेणियों की विद्याधर नगरियों का एकाधिपत्य ज्वलनजटि को अर्पित किया था । अर्ककीर्ति की पत्नी का नाम था ज्योतिर्माला । वह विद्याधरराज मघवन की कन्या थी।
(श्लोक १३४-१४०) श्रीसेन का जीव सौधर्म कल्प से च्यवकर हंस जैसे कमल पर अवतरित होता है उसी भाँति ज्योतिर्माला के गर्भ में अवतरित हुआ । ज्योतिर्माला ने समस्त आकाश को आलोकित करने वाले अनन्त ज्योतिपुंज सूर्य को स्वप्न में अपने मुख में प्रवेश करते देखा। यथा समय उसने सर्व सुलक्षण युक्त एक साम्राज्य रूपी प्रासाद के स्तम्भ रूप पुत्ररत्न को जन्म दिया। स्वप्न में जैसा देखा गया था वेसा ही अमित तेज सम्पन्न उस बालक का नाम अमिततेज रखा गया।
(श्लोक १४१-१४४) ज्वलनजटि ने अपने पुत्र अर्ककीति को राज्य भार देकर जगनन्दन और अभिनन्दन नामक दो चारण मुनियों से श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली।
(श्लोक १४५) सत्यभामा का जीव सौधर्म कल्प से च्युत होकर ज्योतिर्माला और अर्ककीर्ति की कन्या रूप में जन्मा । गर्भ प्रवेश काल में माँ ने स्वप्न में सुन्दर नक्षत्र देखा था । अतः माता-पिता ने उसका नाम