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तब साध्वी प्रमुखा बोली-'पूण्यवान दर देश में, विदेश में, अरण्य वा पर्वत पर यहां तक कि समुद्र में एवं अप्रीतिकर स्थानों में कहीं भी रहे उसे घर का सुख ही प्राप्त होता है । सुख सत्पात्र दान का फल है। इन्होंने किस सत्पात्र को दान दिया था यह तो जिनेश्वर अर स्वामी के सिवा कोई बता नहीं सकता । अतः हम चलकर उनसे पूछे।' तब साध्वी-प्रमुखा, सागरदत्त और अपनी तीन पत्नियों सहित वीरभद्र अर स्वामी के पास गए और उन्हें यथाविधि वन्दन कर उनके सम्मुख बैठ गए। सुव्रता साध्वी ने भगवान से पूछा-'भगवन्, वीरभद्र ने पूर्वभव में ऐसा क्या किया था जिसके फलस्वरूप इस जन्म में उसे यह सुख प्राप्त हुआ ?' अर स्वामी बोले-'मेरे इस भव के पूर्व तृतीय भव में मैं जब पूर्व विदेह के रत्नपुर का राज्य परित्याग कर दीक्षित होकर प्रव्रजन कर रहा था तब उस समय वीरभद्र ने श्रेष्ठीपुत्र जिनदास के रूप में भक्ति भाव से मेरे चार मास के उपवास का पारणा कराया था। उसी पुण्य के फल से वह मृत्यु के पश्चात् ब्रह्मलोक में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहां से च्यवकर जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में एक वणिक श्रावक के रूप में जन्मा और श्रावक के व्रतों का निष्ठापूर्वक पालन किया। वहाँ का आयुष्य शेष होने पर इसने वर्तमान में वीरभद्र के रूप में जन्म ग्रहण किया है। पुण्यानुबन्धी पुण्य के कारण उसने इस जन्म में यह सुख प्राप्त किया है। पुण्य ही मनुष्य के सब कामों में काम आता है।'
(श्लोक ३६५-३७४) ऐसा कहकर अनेक को प्रतिबोध देकर अर स्वामी संसार के अन्धकार को दूर करने के लिए अन्यत्र प्रव्रजन कर गए । वीरभद्र बहुत दिनों तक सांसारिक सुख का भोग कर मृत्यु के पश्चात् पुण्य रूपी रथ पर चढ़कर स्वर्ग गए।
(श्लोक ३७५-३७६) भगवान अर स्वामी के संघ में ५०००० साधु, ६०००० साध्वियां, ६१० चौदह पूर्वधारी, २६०० अवधिज्ञानी, २५५१ मनः पर्यायज्ञानी, २८०० केवली, ७३०० वैक्रिय लब्धिधारी, १६०० वादी, १८४००० श्रावक और ३७२००० श्राविकाएँ थीं । भगवान अरनाथ तीन वर्ष कम २१००० वर्ष तक इस पृथ्वी पर केवली रूप में विचरण करते रहे।
(श्लोक ३७७-३८२) अपना निर्वाण समय निकट जानकर वे १००० मुनियों सहित