________________
[१५७
वीरभद्र ने उनकी कन्या रत्नप्रभा से विवाह किया और सांसारिक सुख भोग करने लगा। एक दिन वह रत्नप्रभा को लेकर पद्मिनीखण्ड घूमने निकला और 'पानी पीकर आता हूँ' कहकर उसे उपाश्रय के सम्मुख छोड़कर अन्यत्र चला गया।' (श्लोक ३४७-३५२)
ऐसा कहकर 'मैं जाता हूँ' कहते हुए उठा । तब रत्नप्रभा ने पूछा- 'वामन, बुद्धदास अभी कहां है ?' 'कल बताऊँगा' कहकर वह चला गया।
(श्लोक ३५३) _ 'इस कहानी से प्रियदर्शना, अनङ्गसुन्दरी और रत्नप्रभा बड़ी प्रसन्न हईं कि उनका पति एक ही है।' इतना कहकर गणधर कुम्भ श्रेष्ठी सागर से बोले-'श्रेष्ठिन्, यह वामन ही तुम्हारा जंवाई है और तीनों कन्याओं का पति । कौतूहल के लिए ही वह उसको छोड़कर चला गया था।
(श्लोक ३५४-३५५) तब वामन गणधर कुम्भ को वन्दना कर बोला-'भगवन्, ज्ञान दृष्टि से आपने जो कुछ वर्णन किया वह वैसा ही है।'
(श्लोक ३५६) द्वितीय याम उत्तीर्ण होने पर गणधर कुम्भ ने अपनी देशना समाप्त की। क्यों कि देशना का समय इतना ही होता है। तब श्रेष्ठी सागरदत्त वामन को संग लेकर सानन्द उपाश्रय लौटा। वामन को आते देखकर तीनों विरहिणियां व्यग्रतापूर्वक उसे देखने आईं। भला पति का संवाद सुनकर कौन व्याकुल नहीं होता?
(श्लोक ३५७-३५९) तब सागरदत्त बोले-'ये तुम तीनों के ही पति हैं ।' वे बोलीं, 'सो कैसे ?' इस पर सागरदत्त ने सारी घटना कह सुनाई । यह सब सुनकर वे तीनों एवं साध्वी-प्रमुखा आश्चर्यचकित हो गई। फिर वामन ने भी भीतर जाकर अपना वामन. रूप परित्याग किया। पहले तो उसने वही रूप धारण किया जिसमें अनङ्गसुन्दरी ने उसे देखा था। तदुपरान्त कृष्णवर्ण परित्याग कर गौरवर्ण धारण किया। अब तो तीनों ही ने उसे पतिरूप में पहचान कर घेर लिया।
(श्लोक ३६०-३६३) साध्वी-प्रमुखा ने तब उससे पूछा-'आपने ऐसा क्यों किया?' प्रत्युत्तर में वीरभद्र बोला- 'कौतुक के लिए। कौतुक के लिए ही मैंने अपना घर और इनका परित्याग किया था।' (श्लोक ३६४)