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लगा।
(श्लोक ३३७) . . . 'वीरभद्र ने नगर परित्याग कर गुटिका भक्षण कर कृष्णवर्ण धारण कर लिया और विभिन्न देशों में भ्रमण करता हुआ सिंहल द्वीप पहुंचा। वहां वह रत्नपुर के श्रेष्ठी शंख की दूकान पर जाकर बैठ गया। उसका इतिवृत्त सुनकर श्रेष्ठी अपने घर ले गया और पुत्र की तरह उसे रखने लगा। वहां वीरभद्र नगरवासियों के सम्मुख अपनी कला का प्रदर्शन करता हुआ उनकी प्रशंसा जुटाते हुए सुखपूर्वक रहने लगा। एक दिन वीरभद्र श्रेष्ठी कन्या के साथ स्त्री वेश में राजकन्या अनङ्गसुन्दरी के प्रासाद में गया । अपनी कला का प्रदर्शन कर और अपना परिचय देकर उसने राजकन्या से विवाह कर लिया। उसकी कला ने अनङ्गसुन्दरी को मुग्ध कर दिया था। इसलिए उसी के कहने पर उसके पिता ने वीरभद्र से उसका विवाह कर दिया था। बहुत दिनों तक वह उसके साथ सांसारिक सुख भोग करता रहा। बाद में जब वह उसे लेकर ताम्रलिप्त लौट रहा था तब एक दिन तूफान में फँसकर उसका जहाज चूर-चूर हो गया।'
(श्लोक ३३८-३४३) _ 'इतनी कहानी सनकर वह उठ खड़ा हो गया। बोला-'अब मेरा राजसभा में जाने का समय हो गया है । सेवा नहीं करने पर सेवकों की जीविका नहीं रहती।' उसे उठते देखकर अनङ्गसन्दरी व्यग्रतापूर्वक बोली-'वीरभद्र अब कहां है ?' 'कल बताऊँगा' कह कर वह वामन राजप्रासाद में चला गया। राज-कर्मचारियों ने गत कल की भाँति जो कुछ घटा था राजा को कह सुनाया।
। (श्लोक ३४४-३४६) ___ 'तृतीय दिन वामन पुनः उपाश्रय में आया और बोलने लगा, 'जहाज भग्न हो जाने पर वीरभद्र एक काष्ठ फलक का सहारा लेकर जल में प्रवाहित होने लगा। उसी अवस्था में विद्याधरराज रतिवल्लभ ने उसे देखा तो जल से बाहर निकाला और अपने निवास स्थान वैताढय पर्वत पर ले गए। जब वे उसे समुद्र से उठा रहे थे तो वीरभद्र ने जिस गुटिका को खाकर कृष्णवर्ण धारण किया था उसे हटा लिया । अतः वह पूनः ताम्रलिप्त की तरह गौरवर्णीय हो गया। रतिवल्लभ के पूछने पर उसने अपना नाम बुद्धदास बताया और सिंहल द्वीप में रहने वाला। रतिवल्लभ के आग्रह पर