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[१५३ हैं। ये ही सच्चे देव हैं, अर्हत् हैं, भगवान् हैं । ये बुद्ध ब्रह्मादि देव नहीं हैं। वे लोग तो मनुष्य को संसार चक्र में डाल देते हैं । अक्षमालादि धारण कर वे अपना अज्ञान ही प्रकट करते हैं।'
(श्लोक २८७-२९२) इस प्रकार सुख भोग करते हुए उन्होंने और कुछ समय बिताया।
(श्लोक २९३) 'एक दिन रात्रि के शेष याम में बुद्धदास ने रत्नप्रभा से कहा-'प्रिये, आज हम भरतार्द्ध के दक्षिणार्द्ध में घूमने जाएँगे।' उसके सम्मत होने पर वे दोनों पद्मिनीखण्ड में साध्वीप्रमुखा सूव्रता के उपाश्रय के सम्मुख विद्या-बल से उपस्थित हुए। वीरभद्र ने रत्नप्रभा से कहा-'तुम जरा यहीं खड़ी रहो, मैं पानी पीकर आता हूं।' यह कहकर उसे वहीं छोड़कर वह कुछ आगे गया और आड़ में खड़े होकर राजा के गुप्तचर की तरह उस पर नजर रखी। बहुत देर तक पति के नहीं लौटने पर चक्रवाकी की तरह एकाकिनी रत्नप्रभा जोर-जोर से रोने लगी। स्त्रियों का स्वभाव ही ऐसा होता है। उसका करुण क्रन्दन सुनकर करुणहदया साध्वीप्रमुखा सुव्रता बाहर आईं और पूछा-'वत्से, तुम कौन हो? कहां से आई हो? तम अकेली क्यों हो? फिर रो क्यों रही हो?' रत्नप्रभा सुव्रता को वन्दन कर बोली-'आर्या, अपने स्वामी के साथ मैं यहां वैताढ्य पर्वत से घूमने आई थी। वे पानी पीने गए; किन्तु इतनी देर हो जाने के कारण मैं भयभीत हो गई हूं। वे मेरे बिना एक मुहूर्त भी नहीं रह सकते । अतः विलम्ब के कारण चिन्तित होकर मैं रो रही हूं। ऊष्ण भूमि पर नेवला जैसे सन्तप्त हो जाता है उसी प्रकार मैं भी सन्तप्त हो गई हूं। मेरे लिए तो जीवन धारण भी असह्य हो गया है।' यह सुनकर सुव्रता स्नेहसिक्त कण्ठ से बोली-'हे पतिगतप्राणा, भय की कोई बात नहीं है । जब तक तुम्हारे पति जल पीकर नहीं आ जाते हैं तब तक तुम इसी उपाश्रय में रहो।' सुव्रता के ऐसा कहने पर रत्नप्रभा उनके साथ उपाश्रय में प्रविष्ट हुई।
(श्लोक २९४-३०५) 'वीरभद्र ने जब रत्नप्रभा को उपाश्रय में प्रवेश करते देखा तो निश्चिन्त होकर अन्यत्र चला गया और वामन रूप में कला का प्रदर्शन करते हुए नगर में घूमने लगा। क्रमशः उसकी बात राजा