________________
१५२]
'उधर वीरभद्र ने भी जब जहाज तरंगों की आघात से भग्न हो गया तो एक काष्ठ फलक को कसकर पकड़ लिया। सातवें दिन विद्याधरराज रतिवल्लभ ने उसे उस अवस्था में देखा तो उसे उठाकर वैताढय पर्वत पर ले गया। स्वयं पुत्रहीन होने के कारण उसने अपनी पत्नी मदनमंजुषा को उसे पुत्र रूप में सौंप दिया । पूछने पर वीरभद्र ने उसे अपनी और पत्नी का समुद्रपतन आद्योपांत सुनाया। बोला-'पिताजी, समुद्ररूपी यम के मुख से आपने मुझे बचाया है; किन्तु नहीं जानता अनङ्गसुन्दरी की क्या दशा हुई है ? तब रतिवल्लभ ने आभोगिनी विद्या द्वारा समस्त तथ्य अवगत कर उससे कहा-तुम्हारी दोनों पत्नियां अनङ्गसुन्दरी और प्रियदर्शना धर्म पालन करती हुई साध्वी सुव्रता के उपाश्रय में रह रही हैं।'
(श्लोक २७४-२८०) _ 'दोनों पत्नियों का कुशल संवाद सुनकर मानो उसकी देह अमृत से सिंचित हई हो इस प्रकार स्वस्ति की निःश्वास ली। जिस समय रतिवल्लभ ने उसे समुद्र से बाहर किया उसी समय वीरभद्र ने उस गुटिका का जिसके बल से उसने कृष्णवर्ण धारण किया था, निकाल लिया था। अतः पुनः अपने स्वाभाविक गौरवर्ण में लौट आया। रतिवल्लभ ने अपनी पत्नी वेदवती से उत्पन्न स्वकन्या रत्नप्रभा के साथ उसका विवाह कर दिया। वीरभद्र ने भी यहां स्वयं का परिचय बुद्धदास कहकर दिया और रत्नप्रभा के साथ सांसारिक सुख भोगने लगा।
(श्लोक २८१-२८४) एक दिन दल के दल विद्याधरों को जाते देखकर उसने अपनी पत्नी से पूछा- 'ये लोग इतनी शीघ्रता से कहां जा रहे हैं ?' रत्नप्रभा ने उत्तर दिया-'इस पर्वत पर स्थित शाश्वत जिनों का दर्शन करने जा रहे हैं।'
(श्लोक २८५-२८६) _ 'यह सुनकर बुद्धदास पत्नी सहित पर्वत शिखर पर चढ़ा । वहां शाश्वत जिन की भक्तिपूर्वक पूजा की और उसकी प्रत्नी ने देवों के सम्मुख गीत सहित नृत्य किया। बुद्धदास ने रत्नप्रभा से कहा-'ये देव मेरे लिए नवीन हैं। कारण, मैं सिंहलद्वीप में रहता हूं और हमारे कुल देवता बुद्ध हैं।' यह सुनकर रत्नप्रभा बोली'मात्र इस कारण से आप कह रहे हैं ये नए हैं ? वास्तव में ये देवाधिदेव सर्वज्ञ, सर्वदोषहीन, वीतराग हैं । त्रिलोक में ये ही पूज्य