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[१५१ के अधिवासी अधिकांशतः सज्जन और धनी हैं, तुम वहां जाकर रहो। कारण, वहां रहने से तुम स्वतन्त्र रूप से रहोगी और वहां तुम्हारे पति का भी तुमसे साक्षात्कार हो सकता है । वृद्ध तापसगण तुम्हें वहां छोड़ आएँगे।'
(श्लोक २५४-२५८) ___ 'कूलपति के आदेश से अनङ्गसुन्दरी वृद्ध तापसों के साथ हंसिनी जैसे कमलखण्ड में जाती है वैसे ही पद्मिनीखंड में चली गई। 'हम नगर में प्रवेश नहीं करते' कहकर तापस उसे नगर के द्वार पर छोड़कर आश्रम लौट गए। यूथभ्रष्ट हरिणी की तरह भीत नेत्रों से चारों ओर देखकर स्वदृष्टि से चारों दिशा को कमलमय कर अनङ्गसुन्दरी ने नगर में प्रवेश किया। नगर में प्रवेश करते ही उसने साध्वियों से परिवृता अपनी माता-सी साध्वी-प्रमुखा सुव्रता को स्थण्डिल भूमि की ओर जाते देखा । सोचने लगी-ये साध्वियां तो वैसी ही हैं जैसा मेरे पति ने चित्रपट पर अङ्कित कर मुझे दिखाई थीं। ये तो पूज्य और समस्त दोषों से रहित हैं। ऐसा सोचकर अनङ्गसुन्दरी उनके पास गई और उन्हें एवं अन्य साध्वियों को पति से प्राप्त शिक्षा के अनुरूप वन्दना कर करबद्ध होकर बोली, 'सिंहल द्वीप के अर्हत् चैत्यों की जय हो।' यह सुनकर सुव्रता बोली-'तुम क्या सिंगल द्वीप से आई हो; किन्तु तुम अकेली क्यों हो? तुम्हारी आकृति से ही लगता है तुम अनुचरहीन नहीं हो। तुम्हारे अनुचर कहां है ?' तब अनङ्गसुन्दरी बोली-'आप मुझे आश्रय स्थल पर ले चलें, मैं आपको सब कुछ बता दूंगी।' तब सुव्रता उसे आश्रय स्थल पर ले गई। वहां जब वह अन्य साध्वियों की वन्दना कर रही थी, तुम्हारी पुत्री प्रियदर्शना वहां उपस्थित थी। सुव्रता और प्रियदर्शना द्वारा पूछे जाने पर उसने समस्त इतिवृत्त कह सुनाया। वह इतिवृत्त सुनकर प्रियदर्शना अनङ्गसुन्दरी से बोली-'सुश्री, कला आदि के सम्बन्ध में तुमने जो कुछ बताया है उसे सुनकर तो वे मेरे पति वीरभद्र ही लगते हैं; किन्तु उनके शरीर का रंग क्या बताया-कृष्णवर्ण? यह मेरे पति से नहीं मिलता।' तब साध्वी प्रमुखा ने अनङ्गसुन्दरी से कहा-'प्रियदर्शना तुम्हारी स्वधर्मी है। धर्म पालन करते हुए तुम उसके साथ रहो।' प्रियदर्शना ने भी स्नेह के साथ उसे ग्रहण कर लिया और तभी से वे दोनों वहां एक साथ रहने लगीं। (श्लोक २५९-२७३)