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मैंने तुम्हें यह बात कही थी ।'
( श्लोक २४० ) 'तब वीरभद्र ने अनङ्गसुन्दरी को साथ लेकर स्वदेश लौट जाने की बात राजा से निवेदित की । नहीं चाहने पर भी अन्ततः कन्या सहित जामाता को देश जाने की अनुमति राजा को देनी पड़ी । कन्या और जामाता का विच्छेद तो सबके लिए दुःख का कारण होता है । तब वे दोनों जलपथ से जाने के लिए जहाज पर चढ़े | जो साहसी हैं उनके लिए जलपथ और स्थलपथ समान ही हैं । अनुकूल वायु में प्रत्यंचा से छूटे तीर की भांति या नीड़ त्यागी पक्षी की तरह जहाज द्रुतगति से आगे बढ़ने लगा । जब जहाज बहुत दूर चला गया तब एक दिन प्रलयकालीन भंझावात - सा भयंकर तूफान आया और हाथी जैसे सहज ही विचाली का पुलिन्दा उठा लेता है वैसे ही उसने जहाज को उठा लिया। बार-बार उठनेगिरने से और तीन दिनों तक इधर-उधर प्रवाहित होते रहने से एक पहाड़ की चोटी से टकराकर जहाज पक्षी के अण्डे की तरह टूटकर चूर-चूर हो गया । जहाज टूटने के साथ-साथ अनङ्गसुन्दरी के हाथ काठ का एक तख्ता लग गया। जिसकी आयु होती है उसकी मृत्यु नहीं होती । उसी कारण तख्ते की सहायता से अनङ्गसुन्दरी पांच दिन और पांच रात्रि तक हंसिनी की तरह प्रवाहित होती अरण्य संकुल एक तट पर जा गिरी। आत्मीय स्वजनों से बहुत दूर विदेश यात्रा में जल में डूब जाने के फलस्वरूप पति और सम्बल खोकर तरंगों के आघात को सहन कर क्षुधा तृष्णा से कातर जब वह तट पर जा पड़ी तो वह जलहीन मीन की तरह मूच्छित हो गई । उसी अवस्था में उसे एक दयालु तरुण तापस ने देखा और कन्धे पर उठाकर आश्रम में ले गया । (श्लोक २४१-२५२) 'अनङ्गसुन्दरी की चेतना लौटी । आश्रम के कुलपति ने उसे आश्वासन दिया- 'माँ, तुम हमारे यहां निर्भय होकर रहो ।'
( श्लोक २५३ ) 'तापसों की परिचर्या से अनङ्गसुन्दरी शीघ्र ही स्वस्थ हो गई और वहां पितृगृह की तरह रहने लगी । कुलपति सोचने लगेवह यदि यहां रहेगी तो अपने असाधारण रूप के कारण तापसों के ध्यान में विघ्न स्वरूप होगी । ऐसा सोचकर वृद्ध कुलपति उससे बोले- 'यहां से कुछ दूर पर पद्मिनी खण्ड नामक एक नगर है | वहां