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[१४९ चाहता हूं। योग्य के साथ योग्य का मिलन हो।' श्रेष्ठी ने कहा-'महाराज, आप हमारे राजा हैं, हम आपकी प्रजा हैं । आप द्वारा रक्षित हैं। वैवाहिक सम्बन्ध और बन्धुत्व समपर्याय के लोगों में होना ही उचित है ।' राजा बोले-'तब क्या आप प्रकारान्तर से मेरा अनुरोध अस्वीकृत कर रहे हैं ? दुविधा में मत पडिए । मेरी आज्ञा का पालन करिए। जाइए और अभी विवाह का आयोजन करिए।
(श्लोक २२०-२२७) राजा की आज्ञा शिरोधार्य कर श्रेष्ठी घर लौट आए और वीरभद्र को सारी बात कह सुनाई। तदुपरान्त शुभ दिन और शुभ क्षण में महा धूमधाम के साथ वीरभद्र और अनङ्गसुन्दरी का विवाह सम्पन्न हुआ। दिन-प्रतिदिन उनका प्रणय वद्धित होने लगा । पात्रपात्री जब परस्पर एक दूसरे का चयन करते हैं तब प्रणय की वृद्धि होती रहती है। जैन धर्म की शिक्षा देकर क्रमशः वीरभद्र ने अनङ्गसुन्दरी को जैन श्राविका बना लिया । इहलोक का सम्बन्ध परलोक में भी सुखकर हो ऐसा ही करना चाहिए। वीरभद्र ने अर्हत् और समवसरण का चित्र बनाकर अनङ्गसुन्दरी को दिया और उसे इससे सम्बन्धी परिज्ञान कराया। (श्लोक २२८-२३२)
'एक दिन वीरभद्र ने सोचा, वह मुझ पर प्रेमवती है; किन्तु चञ्चलमना नारियों के प्रेम में स्थिरता नहीं होती । ठीक है, इसकी मुझे परीक्षा लेनी होगी। ऐसा सोचकर उसे एक दिन अत्यन्त समीप पाकर वीरभद्र बोला-'प्रिये, तुमसे अधिक प्रिय मुझे कोई नहीं है। फिर भी तुम्हें छोड़कर एक बार मुझे देश जाना होगा। कारण, मेरे माता-पिता इस लम्बे विच्छेद से कातर हो गए हैं। मुझे उन्हें सान्त्वना देनी होगी। तुम यहीं रहो। मैं शीघ्र ही लौट आऊँगा। तुम्हें छोड़कर मैं कहीं भी अधिक दिनों तक नहीं रह सकूँगा।'
(श्लोक २३३-२३७) "विवर्ण बनी अनङ्गसुन्दरी बोली-'तुमने जो कुछ कहा वह ठीक ही है; किन्तु यह सुनने मात्र से ही मुझे तो लगता है, मेरे प्राण निकलने वाले हैं। लगता है तुम्हारा हृदय अत्यन्त कठोर है, तभी तो तुम यह बात मुझसे कह सके । तुम्हारे जैसी मैं भी होती तो तुम्हारी इस बात को सहन कर सकती। (श्लोक २३८-२३९)
'प्रिये, क्रोध मत करो। तुम्हें साथ लेकर जाने के लिए ही