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के पास गया । अनंगसुन्दरी उस समय वीणा बजा रही थी। वीरभद्र ने उससे कहा-'देवी, तारों के मध्य कहीं सिर का केश अटका हुआ है। अतः शुद्ध स्वर निकल नहीं रहा है। अनंगसुन्दरी ने कहा-'यह तुमने कैसे जाना ?' वीरभद्र ने उत्तर दिया-'आप जिस राग को बजा रही थीं उस राग को सुनते ही समझ गई।' तब अनंगसुन्दरी ने वीणा उसके हाथों में दी। सत्यज्ञाता वीरभद्र ने तब तारों को खोल डाला । हृदय से तीर निकालने की भांति वीणा के मध्य भाग से एक केश निकालकर, राजकुमारी को दिखाया। राजकुमारी के तो विस्मय की सीमा ही नहीं रही। उसने उस तार को पलट कर नया तार लगाया और तुम्बरु से भी अधिक सुन्दर बजाकर सुनाया। सारणी से श्रुति को स्फुट करने वाला स्वर और धातु व व्यञ्जन को स्पष्ट करने वाली तान व कूट तान उत्पन्न कर द्रुत और विलम्बित वादन से कानों के लिए अमृत तुल्य राग व रस युक्त स्वर-लहरी से उसने अनंगसुन्दरी और उसकी परिचारिकाओं को मुग्ध कर डाला। वे चित्र खिचित-सी उस स्वर-लहरी को सुनने लगीं । हरिणी को संगीत सुनाकर ही आवद्ध किया जाता है। उस वीणावादन को सुनकर राजकुमारी सोचने लगी-ऐसे सुयोग्य कलाविद् को खोज पाना तो देवों के लिए भी असाध्य है। इसके बिना तो मेरा जीवन ही व्यर्थ है। मूर्ति सम्पूर्ण होने पर भी माल्य भूषित होकर ही सुन्दर लगती है।
(श्लोक १७६-१८६) _ 'इसी भांति वीरभद्र ने समय-समय पर अपनी अन्य कलाओं का भी परिचय देकर राजकन्या के हृदय को पूर्ण रूप से अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। जब वीरभद्र ने निश्चित रूप से समझ लिया कि अनंगसुन्दरी उस पर आसक्त हो गई है तब उसने एक दिन श्रेष्ठी को गुप्त रूप से कहा- 'विनयवती के साथ स्त्रीवेश में मैं अनंगसुन्दरी के यहां राजमहल में कई बार गया हूं। भयभीत नहीं हों। मैंने ऐसा कुछ अनुचित नहीं किया है जिससे आपकी क्षति हो बल्कि आप तो उससे सम्मानित ही होंगे । राजा यदि अपनी कन्या को मेरे लिए आपको देना चाहें तो आप तुरन्त सम्मत मत होइएगा। कारण अधिक आग्रह ही सम्मान लाता है।' श्रेष्ठी बोले-'यह तो तुम ही अधिक जानते हो कारण हम लोगों