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[१४५ विरहिणी की वेदना को परिस्फुट करना चाह रही हैं; किन्तु उसकी आँखें वैसी नहीं बनी है।' यह सुनकर अनंगसुन्दरी वह पट, रंग और तूलिका वीरभद्र को देती हुई बोली- 'तब तुम वह अङ्कित कर दिखाओ।'
(श्लोक १६०-१६२) ___'वीरभद्र ने भावाभिव्यक्ति सहित अल्प समय में ही वह चित्र अङ्कित कर अनंगसुन्दरी के हाथों में दे दिया। उस चित्र में सूक्ष्मातिसूक्ष्म सही भावाभिव्यक्ति देखकर अनंगसुन्दरी बोली'चित्रांकन के वैदग्ध्य से भावाभिव्यक्ति सुन्दर हुई है। उसकी आंखों से अश्रु झर रहे हैं, मुख मलिन हो गया है, ओष्ठों ने विस्मृत-से पद्मनाल को पकड़ रखा है, कंधा लटक गया है, पंख शिथिल हो गया है। इसकी इसी आकृति ने विरह-वेदना को प्रस्फुटित कर कर दिया है, वर्णन करने की आवश्यकता ही नहीं है।' तदुपरान्त विनयवती को उलाहना के स्वर में बोली- 'बहिन, इसे इतने दिनों तक यहां क्यों नहीं लाई ? ऐसे कलाविद को गोप्य वस्तु की भाँति घर में ही क्यों छिपा रखा था ?'
(श्लोक १६३-१६७) ___ 'वीरभद्र बोला-'गुरुजनों के भय से ही मेरी बहिन मुझे इतने दिनों तक यहां नहीं लाई । और कोई कारण नहीं है।' अनंगसुन्दरी ने उससे कहा-'तुम अपनी बहिन के साथ अब रोज यहां आना।' फिर विनयवती की ओर देखकर बोली-'इसका नाम क्या है ?' वीरभद्र ने झट से उत्तर दिया-'मेरा नाम है बीरमती।' राजकन्या ने पुनः पूछा-'क्या तुम अन्य कला भी जानती हो?' इस बार विनयवती ने कहा-'वह तो तुम स्वयं परख कर देखो। दूसरे के कहने पर विश्वास करना उचित नहीं है।' अनंगसुन्दरी आनन्दित होकर बोली-'ऐसा ही होगा।' फिर उन्हें आप्यायित कर विदा किया। (श्लोक १६८-१७२) _ 'घर आकर वीरभद्र ने स्त्री वेश का परित्याग किया और पिता के प्रति श्रद्धावश दुकान पर गया। श्रेष्ठी ने स्नेहयुक्त स्वर में कहा-'इतनी देर तुम कहां थे? यहां लोग बार-बार आकर तुम्हारे बारे में पूछ रहे थे।' वीरभद्र बोला-'पिताजी, मैं उद्यान में गया था।' श्रेष्ठी बोले-'ऐसा ही है तो ठीक ही है।'
__(श्लोक १७३-१७५) 'दूसरे दिन सर्वकलाविद् वीरभद्र उसी रूप में राजकुमारी