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तुम्हारा इस प्रकार रूष्ट होकर निकलना, उचित नहीं है; किन्तु भाग्यवश ही तुम सकुशल मेरे यहाँ आ गए।' (श्लोक १४२-१४६)
'ऐसा कहकर श्रेष्ठी शङ्क उसे स्व-पुत्र की तरह अपने घर ले गए और स्नानाहार के पश्चात् उससे बोले-'मेरे कोई पुत्र नहीं है। आज से तुम मेरे पुत्र हो। मेरी अतुल सम्पत्ति के आज से तुम्हीं अधिकारी हो । देव की तरह मेरी इस अतुल सम्पति का भोग कर तुम मुझे दृष्टि का आनन्द दो। धनसंचय करना कठिन नहीं है। उस धन का उपभोग करने वाला पुत्र पाना कठिन है।' वीरभद्र विनीत भाव से बोला- 'यद्यपि मैं पितृगह त्याग कर आया हूं; किन्तु लगता है यहां भी मैं पितृगृह में ही आ गया हूं। आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। मैं आपका शिष्य हूं। पुत्र तो पुत्र हो होता है; किन्तु मैं आपका धर्म पुत्र हूं।' (श्लोक १४७-१५१)
'अब वीरभद्र श्रेष्ठी शङ्ख के घर रहने लगा और अल्प दिनों के मध्य ही उसकी कला और शिल्प कौशल ने नगर के अधिवासियों को विस्मित कर दिया।
(श्लोक १५२) 'अनिन्द्य सुन्दरी अनंगसुन्दरी राजा रत्नाकर की एकमात्र कन्या थी; किन्तु वह पुरुष विद्वेषी थी। श्रेष्ठी शङ्ख के भी विनयवती नामक एक सुशीला कन्या थी। वह प्रतिदिन अनंगसुन्दरी के पास आया-जाया करती थी। एक दिन वीरभद्र ने उससे पूछा'बहन, तुम रोज राजमहल में क्यों जाती हो?' विनयवती ने उसे सारी बात स्पष्टतया बताई। तब वीरभद्र ने पूछा-'तुम्हारी सहेली अपना समय कैसे व्यतीत करती है ?' विनयवती ने बताया'वीणावादन आदि कलाभ्यास में।' वीरभद्र बोला-'तब तो मैं भी तुम्हारे साथ चलगा।' विनयवती ने उत्तर दिया- 'पुरुषों का वहां जाना निषेध है। यहां तक कि बालक का भी। तुम वहां कैसे जाओगे?' वीरभद्र ने कहा-'स्त्रीवेश में।' विनयवती के सम्मत होने पर अभिनेता की तरह उसने स्त्रीवेश धारण कर लिया। उसे देखकर अनंगसुन्दरी ने विनयवती से पूछा-'सखि, यह तुम्हारे साथ कौन आई है ?' विनयवती ने कहा-मेरी बहन ।'
(श्लोक १५३-१५९) 'अनंगसुन्दरी एक नवीन चित्रपट पर विरहिणी हंसिनी का चित्र अंकित कर रही थी। वह चित्र देखकर वीरभद्र बोला-'आप