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नींबू, तीर, खड्ग, हथौड़ा और पाश था एवं छठा हाथ वरद मुद्रा में था । बायीं ओर के छह हाथों में क्रमशः नकुल, धनुष, ढाल, त्रिशूल, अंकुश और अक्षमाला थी । इसी भांति नीलवर्णा पद्मासना यक्षिणी उत्पन्न हुई । जिनके दाहिने दोनों हाथों में बिजोरा नींबू, और नील कमल था एवं बाएँ दोनों हाथों में रक्त कमल और अक्षमाला थी । ये दोनों भगवान के शासन देव और देवी बने जो सर्वदा भगवान के निकट रहते थे । ( श्लोक ९७ - १०० )
भगवान अरनाथ ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए एक दिन पद्मिनीखण्ड नगर के बाहर अवस्थित हुए। वहां समवसरण में भगवान ने देशना दी। उनकी देशना के पश्चात् गणधर कुम्भ ने समस्त सन्देहों का निरशन करने वाली देशना दी । देशना के समय एक बौने जैसे व्यक्ति के साथ श्रेष्ठी सागरदत्त आए और देशना सुनने लगे । देशना के अन्त में सागरदत्त खड़े हुए और गणधर कुम्भ को प्रणाम कर बोले :
‘भगवन्, स्वभाव से ही संसार के सभी जीव दुःखी हैं । विशेष कर मैं, जिसे कोई सुख नहीं है । मेरी पत्नी का नाम जिनमति है जिसके गर्भ से प्रियदर्शना नामक मेरे एक कन्या हुई । वह स्वर्ग की देवी से भी अधिक सुन्दर थी । वह समस्त प्रकार की कलाओं में पारंगत होती हुई यौवन को प्राप्त हुई । वह जेसी सुन्दर थी वैसी ही चतुर भी । उसके लिए उपयुक्त वर को लेकर मैं चिन्तित था । मुझे चिन्तित देखकर जिनमति बोली- 'स्वामी, आप चिन्तित क्यों हो रहे हैं ?' मैंने कहा - 'प्रिये ! बहुत ढूँढने के बाद भी प्रियदर्शना के उपयुक्त वर मैंने खोज नहीं पाया है, इसलिए चिन्तित हूं ।' जिनमति ने उत्तर दिया- 'स्वामी, उसके लिए ऐसा श्रेष्ठ पति खोजिए जिसके हाथों में सौंपकर हमें पश्चात्ताप न करना पड़े ।' मैंने कहा – 'यहां भाग्य ही बलवान होता है । अपना भला तो सभी चाहते हैं, कोई भी अपना बुरा नहीं चाहता है ।' (श्लोक १०१ - ११० ) 'इस चर्चा के पश्चात् मैं बाजार गया । वहां ताम्रलिप्ति के धनिक वणिक ऋषभदत्त से मेरा मिलाप हुआ । स्वधर्मी होने के नाते पुराने मित्रों की भांति हम लोगों में व्यवसाय के विषय में चर्चा हुई । एक दिन वह कार्यवश मेरे घर आया और प्रियदर्शना को जो देखा तो बहुत देर तक देखता ही रह गया । उसने मुझसे