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नहीं । इनमें एक का परित्याग कर देने से दोनों का ही परित्याग हो जाता है । कामादि दोष राग के भृत्य और मिथ्या अभिमान आदि द्वेष के अनुचर हैं । मोह राग-द्वेष का पिता, बीज, नायक अथवा परमेश्वर है । यह मोह रागादि से भिन्न नहीं हैं । एतदर्थ समस्त दोषों का पितामह मोह ही है । मोह से सभी को सावधान रहना चाहिए । संसार में राग, द्वेष और मोह ये तीन ही दोष हैं, उन्हें छोड़कर अन्य कोई दोष नहीं है । इस त्रिदोष के कारण ही जीव संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है । जीव का स्वभाव तो स्फटिक की भांति स्वच्छ है, उज्ज्वल है; किन्तु इस त्रिदोष के कारण ही जीव के विभिन्न रूप होते हैं । विश्व के आध्यात्मिक राज्य में यह कैसी अराजकता है कि राग, द्वेष और मोह रूप भयंकर दस्यु जीवों का ज्ञान रूपी सर्वस्व और स्वरूप स्थिरता रूपी सम्पत्ति दिन के समय ही सबके सामने लूट लेता है । जो जीव निगोद में है और जो शीघ्र मुक्ति प्राप्त करने वाले हैं उन सभी पर मोहराज की निर्दय निष्ठुर सेना टूट पड़ी है । मोहराज को क्या मुक्ति से शत्रुता है और मुमुक्षुओं से वैर है जिसके कारण वह जीवों की मुक्ति के सम्बन्ध में बाधक है । आत्मार्थी मुनियों को न सिंह का भय रहता है, न बाघ का और न ही सर्प, चोर, अग्नि और जल का । वे भी रागादि त्रिदोष से भयभीत हैं । कारण, ये इहभव और परभव नष्ट र देते हैं । संसार अतिक्रमण का जो पथ योगी जनों ने ग्रहण किया है वह संकीर्ण है जिसके दोनों ओर राग-द्वेष रूपी बाघ और सिंह खड़े हैं । अतः आत्मार्थी मुनियों के लिए उचित है कि वे प्रमाद रहित होकर समभाव सहित पथ पर चलें और राग-द्वेष रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें ।' (श्लोक ७५-९३)
भगवान की देशना सुनकर बहुतों ने मुनिधर्म ग्रहण किया और कुम्भ आदि ३३ गणधर बने । प्रथम याम उत्तीर्ण होने पर प्रभु देशना से निवृत्त हुए । तब गणधर कुम्भ ने प्रभु के पादपीठ पर बैठकर देशना दी। दूसरा याम बीत जाने पर वे देशना से निवृत्त हो गए। शक्र और अन्यान्य सभी प्रभु की निवास को लौट गए ।
वन्दना कर स्व-स्व
( श्लोक ९४ - ९६ ) भगवान के शासन में त्रिनेत्र कृष्णवर्ण शङ्खवाहन यक्षेन्द्र उत्पन्न हुए । जिनके दाहिने छह हाथों में से पांच हाथों में बिजोरा