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१४२] पूछा-'यह लड़की कौन है ?' मैंने जवाब दिया- 'मेरी लड़की है; किन्तु आप उसकी ओर इस प्रकार क्यों देख रहे हैं ?' ऋषभदत्त ने कहा-'श्रेष्ठी, वीरभद्र नामक मेरा एक पुत्र है। वह सुशील और तरुण है। रूप में वह कन्दर्प, काव्य रचना में शुक्र, वाग्मिता में वृहस्पति, शिल्पकर्म में वर्द्धकी, सङ्गीत में हूहू, वीणावादन में तुम्बरु, नाट्यकला में भरत और कौतुक करने में नारद है । गुटिका भक्षण कर वह देवों की तरह अपना रूप परिवर्तित कर सकता है और क्या कहूं ऐसी कोई कला नहीं है जिसे ईश्वर की भांति वह न जानता हो । उसके उपयुत कन्या मैं अन्यत्र कहीं खोज नहीं पाया। बहुत दिनों पश्चात् आपकी कन्या को देखकर लगा कि यह उसके उपयुक्त है।'
(श्लोक १११-११९) मैंने कहा-'मेरी यह कन्या भी समस्त कलाओं में निपुण है। इसके वर के लिए मैं भी चिन्तित हूं। सौभाग्य से आज आप से मेरा मिलना हुआ। मैं चाहता हूं वर-वधू रूप में इनका मिलन हो।'
__(श्लोक १२०-१२१) _ 'उपयुक्त पुत्रवधू प्राप्त कर ऋषभदेव आनन्दित होकर स्वनगर में लौट गया और वीरभद्र को आत्मीय परिजनों सहित यहां भेजा। मैंने जब वीरभद्र को देखा तो उसके पिता के कथनानुसार उसे रूप, यौवन और गुणसम्पन्न पाया। तदुपरान्त एक शुभ दिन वीरभद्र ने उच्चकुलजात महिलाओं के मङ्गलगीत और आशीर्वचन के मध्य प्रियदर्शना का पाणिग्रहण किया। कुछ दिन यहां रहकर वह स्वपत्नी को लेकर स्वदेश लौट गया क्योंकि स्वाभिमानी श्वसुर गह में अधिक दिनों तक नहीं रहते।' (श्लोक १२२-१२५)
___ 'एक दिन मैंने सुना कि वीरभद्र रात्रि के शेष याम में मेरी निद्रित कन्या का परित्याग कर अन्यत्र कहीं चला गया। मैं उसी दुःख से दुःखी था। यह वामन उसकी खबर लेकर आया है; किन्तु वह कुछ भी ठीक से समझा नहीं पा रहा है। हे भगवन, यथार्थ स्थिति क्या है—यह आप ही बतलाएँ ।' (श्लोक १२६-१२७)
यह सुनकर दयालु हृदय गणधर कुम्भ ने सागरदत्त से कहा
'उस रात्रि में आपके जंवाई ने सोचा-मैं विभिन्न कलाओं में पारदर्शी और मन्त्रविद् हूं। आश्चर्यजनक बहुविध दिव्य गुटिकाओं का प्रयोग मैं जानता हूं और सर्व प्रकार की शिल्पकलाओं में भी