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मणियों के भवन देखकर लगता मानो वे मेरु, कैलाश और अञ्जन गिरि के शिखर हैं । स्वर्ग के वृत्रघ्न-से वहां के राजा थे चन्द्र-से सुन्दर सुदर्शन । धर्म तो मानो उनका मित्र ही था जिसका साहचर्य वे क्या नगर में, क्या बाहर, क्या शयन कक्ष में, कभी भी परित्याग नहीं करते थे । उनका प्रताप मन्त्र की भांति विस्तृत होने के कारण उनकी सेना तो मात्र अलङ्कार रूप थी । राजा लोग प्रतिदिन उन्हें जो हस्ती उपहार में देते उनके मदक्षरण से राजप्रासाद के चत्वर की धूलि निवारित होती रहती । ( श्लोक १३ - २० ) अन्तःपुर की अलङ्कार स्वरूपा उनकी प्रधान महिषी का नाम था देवी । इन्हें देखकर लगता मानो स्वर्ग की कोई देवी ही मृत्युलोक से अवतरित हुई है । उनका स्वभाव इतना कोमल था कि प्रणय में भी उन्होंने कभी अपने पति के प्रति कोप प्रकट नहीं किया और उदार हृदयी होने के कारण न ही कभी अपनी सौतों प्रति ईर्ष्या | पति का प्रेम व स्व-सौन्दर्य पर वे कभी गर्वित नहीं होती थीं जबकि वे रमणियों में रत्नरूपा थीं जिनका देहसौष्ठव अनिन्द्य था व जो सौन्दर्य की
।
वह मात्र दर्पण में ही देखा जा था, भोग करते हुए राजश्रेष्ठ दीर्घबाहु काल व्यतीत किया ।
अन्यत्र नहीं सुदर्शन ने
उनका प्रतिरूप, मानो सरिता थी
। उनके साथ सुखदेवों की तरह कुछ
( श्लोक २१ - २५)
आनन्द में निमज्जित धनपति का जीव ग्रैवेयक विमान की आयु पूर्ण कर फाल्गुन शुक्ला द्वितीया के दिन चन्द्र जब रेवती नक्षत्र में अवस्थित था वहां से च्यवकर महारानी देवी के गर्भ में प्रविष्ट हुआ । रात्रि के शेष याम में सुख शय्याशायीन उन्होंने तीर्थङ्कर के जन्म सूचक चौदह महास्वप्न देखे । तीन ज्ञान का अधिकारी, वह भ्रूण उन्हें किसी भी प्रकार का कष्ट दिए बिना उनके देह सौन्दर्य को वृद्धि करते हुए गुप्त रूप से बढ़ने लगा । अग्रहायण मास की शुक्ला दशमी को चन्द्र जब रेवती नक्षत्र में अवस्थित था महारानी देवी ने स्वर्णवर्णीय सर्वसुलक्षणयुक्त नन्दयावर्त लांछन युक्त पुत्र को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारियों ने उनका कृत्य सम्पन्न किया और चौसठ इन्द्रों ने मेरुपर्वत पर उनका जन्माभिषेक किया । उनकी देह पर अङ्गराग कर पूजा और आरती की। तत्पश्चात् सौधर्मेन्द्र इस प्रकार स्तुति की :