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महोत्सव मनाया और उनके दन्तादि अवशेष पूजा के लिए स्व-स्व वासस्थान पर ले गए।
((श्लोक १२६-१३१) प्रथम सर्ग समाप्त अमरनाथचरित ..
द्वितीय सर्ग इक्ष्वाकु वंश के तिलक गोरोचनवर्णीय और चतुर्थ आरा रूप सरिता के हंस भगवान अरनाथ की जय हो। मैं यहां त्रिलोक रूपी कमल के लिए आनन्ददायी चन्द्र रूप भगवान अरनाथ का जीवनवर्णन करूंगा।
(श्लोक १-२) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में सीता नदी के उत्तरी तट पर वत्स नामक विजय में सुसीमा नामक एक नगरी थी। वहां के राजा का नाम था थनपति। वे जैसे असीम साहसी थे वैसे ही धर्मपरायण थे। वे जब इस पृथ्वी पर शासन करते थे तब बन्धन, प्रताड़न, अङ्ग भंगादि दण्डों का प्रयोग नहीं होता था। कारण, प्रजाजनों में कलह या विवाद ही नहीं था। वे परस्पर प्रेम भावापन्न होकर रहते थे मानो समस्त पृथ्वी धर्मसंघ में परिणत हो गई है। जिन-प्ररूपित धर्म उनके करुणामय हृदय में सर्वदा हंस की तरह निवास करता था । क्रमशः इस संसार की निरर्थकता अनुभव कर उन्होंने संसार से विरक्त होकर संवर की साधना के लिए सम्बर नामक मुनि से दीक्षा ग्रहण कर ली। कठोरतापूर्वक धर्म पालन और तप कर वे पृथ्वी पर पर्यटन करने लगे। यद्यपि वे कर्मों के शत्र थे, फिर भी बीस स्थानक की उपासना और अर्हत् भक्ति कर तीर्थङ्कर नाम गोत्र उपार्जन किया। कालान्तर में ध्यानासन में देह त्याग कर नवम वेयक विमान में अहमिन्द्र रूप में उत्पन्न हुए।
(श्लोक ३-१२) __ जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में हस्तिनापुर नामक एक महानगरी थी। वहां के राजा सेवाकर्म के लिए ही प्रजा की सेवा करने हेतु जन्म ग्रहण करते थे। विमानादि अतुल वैभव के कारण ही वहां के प्रजाजन राजा-से लगते थे । नगरी की परिखा देखकर लगतानगरी के सौन्दर्य को चिरस्थायी करने के लिए ही सृष्टिकर्ता ने वह रेखा खींच दी थी । बहुविध स्वर्ण, स्फटिक और इन्द्रनील