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[१३७ 'जिनके अठारह दोष विनष्ट हो गए हैं, जिनका अठारह प्रकार के ब्रह्मचारीगण ध्यान करते हैं, ऐसे अठारहवें तीर्थङ्कर आपको मैं प्रणाम करता हूं। गर्भ से ही तीन ज्ञान जिस प्रकार आप में वर्तमान थे उसी प्रकार यह त्रिलोक आप में समाहित है। रागद्वेष रूपी दस्यू इतने दिनों तक इस संसार को मोह-रूपी निद्रा में वशीभूत कर शासन कर रहे थे । अब हे प्रभु, आप उनका उद्धार करें। क्लान्त पथिकों के लिए रथ सदृश, पिपासात के लिए नदी-से, तपन ताप से क्लिष्ट के लिए वृक्ष की छाया-से, डूबते हुए मनुष्य के लिए नौका-से, रोगी के लिए आरोग्य-से, अन्धकार क्लिष्ट के लिए आलोक-से, पथ-भ्रष्ट के लिए पथ-प्रदर्शक की तरह, व्याघ्रभीत के लिए अग्नि की तरह, हे तीर्थनाथ ! दीर्घ दिनों से प्रभ से वंचित हमने आपको प्रभु रूप में प्राप्त किया है। प्रभु रूप में आपको पाकर देव, असुर और मनुष्य जैसे नवीन चन्द्र देखने सब एकत्र होते हैं उसी प्रकार यहां एकत्र हुए हैं । हे भगवन्, मैं आपसे और कुछ नहीं चाहता, केवल इतना ही चाहता हूं कि जन्म-जन्म में आप मेरे प्रभु
__(श्लोक २६-४०) इस प्रकार स्तुति कर सौधर्मेन्द्र प्रभु को लेकर हस्तिनापुर गए और उन्हें महारानी देवी के पार्श्व में सुला दिया । राजा सुदर्शन ने पुत्र जन्मोत्सव किया। महारानी देवी ने स्वप्न में चक्के का अर देखा था इसलिए जातक का नाम रखा अर । मित्ररूपी देवों के साथ धात्रीरूपिणी देवियों द्वारा अनुमोदित क्रीड़ा करते हुए वे क्रमशः बड़े हुए । तीस धनुष दीर्घ अरनाथ ने पिता का आदेश पालन करने के लिए यथासमय विवाह किया। तदुपरान्त एक सौ हजार वर्ष व्यतीत होने पर पिता की आज्ञा से ही राज्यभार ग्रहण किया।
(श्लोक ४१-४५) २१००० वर्ष और बीत जाने पर उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। अतः चक्र एवं अन्य तेरह रत्नों का अनुसरण करते हुए अरनाथ ने ४०० वर्ष में समग्र भरत क्षेत्र को जीत लिया।
(श्लोक ४६-४७) ___ एक सौ हजार वर्ष चक्री रूप में व्यतीत होने पर लोकान्तिक देवों ने आकर तीर्थ स्थापित करने को कहा । प्रभु ने एक वर्ष तक वर्षीदान देकर राज्यभार पुत्र अरिनन्दन को सौंपकर एवं वैजयन्ती
बनें।