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प्रवेश किया और वैताढ्य पर्वत अतिक्रम कर गए । गंगा के मुहाने पर स्थित नवनिधियों ने स्वयं उनकी शरण ग्रहण कर ली एवं गंगा के ऊपरी जनपद को उनके सेनापति ने जीत लिया। इस प्रकार उन्होंने छह महीने में समस्त भरत क्षेत्र को जीत लिया। चक्रवर्ती कुन्थुनाथ इस भांति चक्री को जो कुछ करणीय था वह सब कर देव और मनुष्यों से परिवत होकर हस्तिनापुर लौट आए। देवों और मनुष्यों ने उन्हें चक्रवर्ती पद पर अभिषिक्त किया। वह उत्सव नगर में बारह वर्षों तक चला । २३७५० वर्षों तक कुन्थुनाथ ने चक्री रूप में राज्य भोग किया।
(श्लोक ५६-६८) लोकान्तिक देवों के 'तीर्थ स्थापन करिए' यह स्मरण करा देने पर कुन्थनाथ ने एक वर्ष तक वर्षी दान दिया और राज्यभार पुत्र को सौंप दिया। वे महाभिनिष्क्रमण उत्सव पर आरोहण कर सहस्राम्रवन उद्यान में गए। वह उद्यान वसन्त के आविर्भाव से मनोरम बना हुआ था। तरुण युवकों की भांति दक्षिण पवन चम्पक कलिका को चूम रही थी, सहकार शाखा को आन्दोलित कर रही थी, वासन्तिकाओं को नृत्य करा रही थी, निर्गुण्डियों को आनन्दित कर रही थी, लवलियों को आलिंगन दे रही थी, मल्लिकाओं का स्पर्श सुख ले रही थी, कृष्ण कलिकाओं को प्रस्फुटित कर रही थी, कमल पुप्पों को अभिनन्दित कर रही थी, अशोक मंजरी को सान्निध्य दे रही थी, कदली वृक्षों के प्रति अनुराग प्रकट कर रही थी। हिण्डोलों में झूमती हुई सुन्दरियों द्वारा वह वन और भी सुन्दर हो उठा था। विलासी नगरवासी वहां आकर पुष्प चयन कर रहे थे। भ्रमरों के गुञ्जन और उन्मत्त कोकिलाओं की कुहुक से वह वन सबका स्वागत कर रहा था। (श्लोक ६९-७५)
कुन्थुनाथ शिविका से नीचे उतरे और उस वन में प्रविष्ट हुए तदुपरान्त अलङ्कारादि खोलकर वैशाख कृष्णा पंचमी को चन्द्र जब कृत्तिका नक्षत्र में अवस्थित था उन्होंने एक हजार राजाओं के साथ प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। दीक्षा ग्रहण के साथ-साथ उन्हें मनःपर्याय ज्ञान उत्पन्न हुआ। तदुपरान्त दो दिनों के उपवास का पारणा दूसरे दिन सुबह उन्होंने चक्रपुर के राजा व्याघ्रसिंह के घर पायसान्न ग्रहण कर किया। देवों ने रत्न वर्षादि पंच दिव्य प्रकट किए । राजा व्याघ्रसिंह ने जहां प्रभु खड़े हुए थे वहाँ एक रत्नवेदी