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१३०] थे उसी प्रकार चिरकाल तक मेरे हृदय में अवस्थित रहें।'
(श्लोक ३४-४७) __इस प्रकार स्तुति कर इन्द्र जातक को लेकर शीघ्र हस्तिनापुर गए और उन्हें माता श्रीदेवी के पार्श्व में सुला दिया। (श्लोक ४८)
राजा सूर ने भी पुत्र जन्मोत्सव मनाया। तीर्थङ्कर के आविर्भाव से पृथ्वी पर उत्सव ही उत्सव होते रहते हैं। वे जब गर्भ में थे तब रानी श्री ने कुन्थु नामक रत्न राशि देखी थी इसीलिए पिता ने उनका नाम रखा कुन्थु । शक द्वारा रक्षित अंगुष्ठ का अमृत पान कर वे क्रमशः बड़े हुए और ३५ धनुष की दीर्घता प्राप्त की। पिता के आदेश से यथासमय उन्होंने राजकन्याओं से विवाह किया । भोग किए बिना भोगावली कर्म नष्ट नहीं होते।
(श्लोक ४९-५२) जन्म के पश्चात् २३७५० वर्ष व्यतीत होने पर पिता के आदेश से उन्होंने राज्यभार ग्रहण किया। राज्य ग्रहण के पश्चात् २३७५० वर्ष व्यतीत होने पर उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। जो पृथ्वी को पूज्य थे ऐसे सूर-पुत्र ने उस चक्ररत्न की पूजा की। जो महत् होते हैं वे भत्यों को भी सम्मान देते हैं।
(श्लोक ५३-५५) तदुपरान्त चक्ररत्न का अनुसरण करते हुए उन्होंने क्रमशः मगध, वरदाम और प्रभास पति को जय कर लिया। सिन्धु देवी और वैताढय राजकुमार कृतमाल देव को उन्होंने स्वयं जीता और उनके सेनापति ने सिन्धु जनपद पर अधिकार कर लिया। सेनापति के तमिस्रा का द्वार खोल देने पर उन्होंने तमिस्रा अतिक्रमण कर आपात जातीय म्लेच्छों पर विजय प्राप्त कर ली । सिन्धु के अन्य जनपदों पर सेनापति द्वारा अधिकार कर लेने पर उन्होंने क्षुद्र हिमवत कुमारों को जीत लिया। फिर नियमानुसार ऋषभकूट पर्वत पर अपना नाम लिखा और चक्ररत्न का अनुसरण करते हुए वहां से प्रत्यावर्तन किया। वहां से वैताढय पर्वत पर गए जहां उभय श्रेणियों के विद्याधर राजाओं ने उन्हें उपहारादि देकर पूजन किया। गंगादेवी और नाटयमाल देव को उन्होंने स्वयं जीता और उनके सेनापति ने गंगा जनपद स्थित म्लेच्छों को जीत लिया। सेनापति रत्न खण्डप्रपाता गुहाद्वार के खोल देने पर उन्होंने उसमें