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का निर्माण करवाया ।
( श्लोक ७६ - ७९ ) अनासक्त वायु की भाँति अप्रतिहत प्रभु ने सोलह वर्ष छद्मस्थ अवस्था में विचरण किया । प्रव्रजन करते हुए एक दिन वे सहस्राम्रवन में लौट आए और दो दिनों के उपवास के पश्चात् तिलक वृक्ष के नीचे प्रतिमा धारण कर अवस्थित हो गए । चैत्र शुक्ला तृतीया को चन्द्र जब कृत्तिका नक्षत्र में अवस्थित था तब घाती कर्मों के क्षय हो जाने से प्रभु को केवलज्ञान प्राप्त हुआ । तब चार श्रेणियों के देव और उनके इन्द्र ने अविलम्ब वहां आकर तीन प्राकारों से समन्वित समवसरण की रचना की । देवों द्वारा संचालित स्वर्ण कमलों पर पैर रखते हुए प्रभु पूर्व द्वार से उस समवसरण में प्रविष्ट हुए । वहां ४२० धनुष दोर्घ चैत्यवृक्ष की प्रदक्षिणा देकर जगद्गुरु धर्म चक्रवर्ती कुन्थुनाथ 'नमो तित्थाय' कहकर ' पूर्वाभिमुख होकर पूर्व दिशा में रखे सिंहासन पर उपविष्ट हुए । उनकी शक्ति से व्यन्तर देवों ने उनके अनुरूप तीन मूर्तियों का निर्माण कर तीन ओर रखा । चतुविध संघ यथायोग्य स्थित हुआ । पशु मध्य प्राकार में और वाहनादि निम्न प्राकार में रखे गए। समवसरण की रचना ज्ञात होने पर कुरुराज वहां आए और उन्हें प्रणाम कर इन्द्र के पीछे करबद्ध होकर बैठ गए। फिर भगवान को पुनः प्रणाम कर सौधर्मेन्द्र और कुरुराज आनन्दित मन से इस प्रकार स्तुति करने लगे :
( श्लोक ८०-९० )
'चतुविध शरीर के चतुर्शरीर रूपी हे चतुर्मुख, मनुष्यों के चतुर्थ वर्ग (मोक्ष) के प्रवक्ता, आपकी जय हो । मोहमुक्त होने के कारण चतुर्दश रत्नों का परित्याग कर हे त्रिलोकनाथ, आपने अनिन्द्य त्रिरत्न धारण किए हैं । यद्यपि आप राग रहित हैं फिर भी आपने सभी के हृदयों को जीत लिया है । यद्यपि आप निःस्वार्थ हैं फिर भी आप सर्वशक्तिमान हैं । यद्यपि चन्द्र से आपके कञ्चन वर्ण का सभी ध्यान रखते हैं, फिर भी आप ध्यान के निवास रूप हैं । यद्यपि कोटि-कोटि देव आपको घेरे हुए हैं, फिर भी आप निःसंग हैं । यद्यपि आपका प्रेम सभी के लिए है, फिर भी आप स्वयं प्रेम से रहित हैं । यद्यपि आप अकिंचन हैं, फिर भी पृथ्वी की परम सम्पदा हैं । हे भगवन्, हे सत्रहवें तीर्थङ्कर, आपका रूप अगम्य है, आपकी शक्ति अगम्य है, आप निखिलजनतारक हैं । हे प्रभो, आपको
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