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खोलकर तुम इन्हें दे दो ताकि उन्हें पहन कर वे तुम्हारे अनुचरों को धोखा देकर तुम्हारे घर जा सकें । जब वे चले जाएँगे तब हम अन्यत्र चले जाएँगे । ' ( श्लोक ४९६-५०१ ) ' यह सुनकर केशरा ने मूर्ति के पीछे जाकर अपने वस्त्र खोल कर कामपाल को दे दिए और स्वयं पुरुष वेष धारण कर लिया । कामपाल ने भी कामदेव की उपासना कर केशरा के वस्त्र पहन लिए और मुख पर अवगुण्ठन डालकर दरवाजा खोल दिया । फिर प्रियंकरा के हाथ पर हाथ रखकर पालकी पर चढ़ गया । पालकीवाहक पालकी ले चले । इस भांति अनुचरों के अनजान में कामपाल पंचनन्दी के घर पहुंच गया । स्वयं ब्रह्मा भी सुपरिकल्पित योजना का भेद नहीं जान पाते । प्रियंकरा ने उसे पालकी से नीचे उतारा और वधू गृह में ले जाकर स्वर्णमण्डित बेंत के आसन पर बैठाया । 'केशरा, तू वहीं मन्त्र जाप करती रह' कहकर वह दूसरी ओर चली गई । कामपाल बुद्धिमान तो था ही । अतः उसके कथन का तात्पर्य समझ गया और मन्मथ एवं रति के मिलन का जाप करता रहा । ( श्लोक ५०२ - ५०८ )
'शङ्खपुर निवासी केशरा के मामा की लड़की मदिरा विवाह में आमन्त्रित होकर वहां आई थी । वह केशरा वेशी कामपाल को जाकर बोली- 'केशरा, जो भाग्याधीन है उसके लिए कष्ट क्यों पा रही है ? मैंने शङ्खपुर में ही वसन्तदेव के साथ तेरे प्रणय की कथा सुनी थी । मैं अपने अनुभव से ही विच्छेद की वेदना जानती हूं | दुर्भाग्य जो इच्छित नहीं है ऐसा ही करता है । उसी प्रकार सौभाग्य जो इच्छित है उसे भी जुटा देता है । बहन, तू तो फिर भी सौभाग्यशाली है । कारण, जिससे प्रेम किया उसे बहुत बार देखा है, उससे बातचीत की है; किन्तु मेरे दुर्भाग्य की बात मैं क्या कहूं ? फिर भी सुन - मैं अनुचरों को लेकर शङ्खपाल के उद्यान में गई थी । वहां अशोक वृक्ष के नीचे मनोहरण एक नवयुवक को देखा । एक सखी के द्वारा मैंने उसे पान भेजा । ठीक उसी समय यम की तरह एक उन्मत्त हाथी मेरी ओर दौड़ा । तभी उसने हाथी से मेरी रक्षा की । उसी हाथी का पुनः उपद्रव होने पर मैं और मेरे अनुचर हाथी के भय से इधर-उधर दौड़ने लगे । उस समय जो उन्हें खोया तो आज तक खोज नहीं पाई । उसी समय से मृतक की भांति जी