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कुलदेवी की तरह एक वृद्धा ब्राह्मणी छींकी । उस छींक को सुनकर कामपाल बोला- 'मित्र, उससे मुझपर आफत नहीं आएगी । वरन् तुम्हारा कार्य कर देने के कारण मेरा भी भला ही होगा ।' ठीक उसी समय एक वृद्ध ब्राह्मण अन्य प्रसंग पर बोला - 'बात सही है ।' इस परिकल्पना से सहमत होकर वसन्तदेव ने कामपाल सहित नगर में प्रवेश किया और दोनों आहारादि के पश्चात् सन्ध्या के बाद कामदेव और रति के मन्दिर में जाकर मूर्तियों के पीछे छिपकर बैठ गए । कुछ देर में ही उन्हें मंगल वाद्य सुनाई पड़े । केशरा आ रही है जानकर वे आनन्दित हुए उच्चारण करती हुई आई 'मेरा मेरे प्रेमी से उच्चारण से ही सिद्ध होता है । स्वर्ग की देवी जैसे विमान से उतरती है वैसे ही केशरा पालकी से उतरी और प्रियंकरा के हाथ से पूजा का स्वर्णथाल लेकर अकेली ही मन्दिर में प्रविष्ट हुई । फिर भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया। क्योंकि ऐसी ही परम्परा है | ( श्लोक ४८१ - ४९० )
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केशरा यही मन्त्र मिलन हो ।' मन्त्र
'पत्र - पुष्प और मुद्राएँ रति और कामदेव की मूर्ति के सम्मुख रखकर वह करबद्ध होकर वाष्परुद्ध कण्ठ से बोली- 'देव, आप सभी के हृदय में सब समय विराजमान रहते हैं । अतः सबका मनोभाव भी जानते हैं । इतना होने पर भी मैं जिससे प्रेम नहीं करती उससे मुझे मिला रहे हैं। क्या यह उचित है ? मैं वसन्तदेव के अतिरिक्त किसी को नहीं चाहती । विषकन्या जिस प्रकार पति की मृत्यु का कारण बनती है उसी प्रकार दूसरा पति मेरी मृत्यु का कारण होगा । आप मुझे आशीर्वाद दीजिए ताकि वसन्तदेव परजन्म में मेरा पति बने । बहुत दिनों से आपकी उपासना कर रही हूं । यह अन्तिम उपासना है ।'
(श्लोक ४९१-४९५) 'ऐसा कहकर वह गले में फांसी लगाकर तोरण की कील से लटकने ही जा रही थी कि वसन्तदेव व कामपाल मूर्तियों के पीछे से बाहर आ गए । वसन्तदेव ने उसके गले की फांसी खोल दी । वह भय, विस्मय, लज्जा से बोल उठी- 'तुम कौन हो ? यहां कैसे आए ?' वसन्तदेव बोला - 'प्रिये ! मैं तुम्हारा पति वसन्तदेव हूं जिसे तुम परजन्म में पाने की कामना कर रही थी । इन महात्मा की योजना के अनुसार मैं तुम्हें यहां लेने आया हूं । तुम्हारे ये वस्त्र