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था उस खूटे को उखाड़कर पैरों की शृङ्खला तोड़कर उस लड़की की ओर दौड़ा। इस आकस्मिक घटना से महावत किंकर्तव्यविमूढ़ बना-सा हाथ में अंकुश लिए खड़ा ही रह गया, कुछ कर नहीं पाया। हाथी को आते देखकर उस लड़की के अनुचर डर कर इधर-उधर भाग गए। कारण, भय के समय सबको अपना जीवन ही प्रिय होता है। सिंह के सम्मुख हरिणी की तरह वह भय से थरथर गांपने लगी। हाथी जैसे ही सूड से उसे उठाने गया तभी मैंने लाठी से उसकी पूछ पर प्रहार किया । सांप की पूछ पर पैर पड़ जाने से जैसे वह लौटकर देखता है उसी प्रकार हाथी उसे छोड़ कर मेरी ओर घमा । उसी समय मैंने हाथी को धोखा देकर सुन्दरी को उठाया और निर्विघ्न स्थान में चला गया। वहां मैंने उसे कंधों से नीचे उतारा; किन्तु उसने मुझे अपने हृदय से नहीं उतारा । उसके अनुचर लौटे और मदिरा की मैंने प्राण-रक्षा की इसके लिए मेरा गुणगान करने लगे।
(श्लोक ४५८-४७२) _ 'वे पूनः मदिरा को आम्रकूञ्ज में ले गए; किन्तु पुनः हाथी का उपद्रव होने पर जिसे जिधर राह मिली वह उधर ही दौड़ गया। उसी भाग दौड़ में मदिरा कहां गई कुछ जान नहीं पाया । तदुपरान्त उसे इधर-उधर बहुत जगह खोजा। बहुत खोजने पर भी वह नहीं मिली। तब हताश होकर घूमता हुआ यहां आया । यद्यपि उसे पुनः पाने की सम्भावना नहीं है, फिर भी मैं मरा नहीं, जीवित हूं; किन्तु तुम्हारे पास तो केशरा तक पहुंचने का उपाय है । हमलोगों का दुःख एक-सा ही है । अतः एक मित्र की भाँति तुम्हें कह रहा हूँ-मृत्यु को क्यों वरण कर रहे हो ? तुमने कहाकल उसका विवाह है। परम्परानुसार आज वह कामदेव और रति की पूजा करने अकेली मन्दिर के भीतर जाएगी। अतः चलो हम चुपचाप मन्दिर में कहीं जा छुपें । उसके मन्दिर में प्रवेश करने पर उसी के वस्त्र पहन कर उसके अनुचरों के साथ मैं केशरा के रूप में उसके घर चला जाऊँगा। मेरे चले जाने के पश्चात् तुम उसे लेकर जहां इच्छा हो चले जाना।' (श्लोक ४७३-४८०)
_ 'उसकी बात से आनन्दित होकर वसन्तदेव बोला-'तुम्हारी योजना बहुत सुन्दर है। उसमें तो मेरा प्राप्तियोग और आनन्द है; किन्तु तुम पर तो एक साथ आफत आ पड़ेगी।' ठीक उसी समय