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में जो वृष्टि होती है उसी से तो धान्य की खूब वृद्धि होती है । उनमें धनेश्वर और धनपति कुछ कपटी थे । उन सबमें द्रोण की ही भावना विशेष शुद्ध थी । द्रोण की मृत्यु उन सबसे पूर्व हुई । मृत्यु के पश्चात् उस पुण्य के प्रभाव से हस्तिनापुर नरेश के पुत्र कुरुचन्द्र के रूप में तुमने जन्म ग्रहण किया । तुम्हारे जन्म के पूर्व . तुम्हारी मां ने मुख में चन्द्र को प्रवेश करते देखा था । अतः तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारा नाम कुरुचन्द्र रखा । सुधन और धनदेव मृत्यु होने पर काम्पिल्य और कृत्तिकापुर के वणिक पुत्र रूप में जन्मे । सुधन का नाम हुआ बसन्तदेव और धनदेव का कामपाल । क्रमशः धनपति और धनेश्वर की भी मृत्यु हुई । वे वणिक कन्या मदिरा और केशरा रूप में शंखपुर और जयन्ती नगरी में जन्मे । वे चारों बड़े होने पर यौवन को प्राप्त हुए । ( श्लोक ३९४ - ४०२ ) 'एक बार बसन्तदेव वाणिज्य के लिए काम्पिल्य से जयन्ती नगरी गया और वहां पण्य क्रय-विक्रय कर अर्थोपार्जन करने लगा । वहां रहते हुए वह एक दिन अष्टमी तिथि के चन्द्रोत्सव में रतिनन्दन उद्यान में गया । वहां उसने केशरा को देखा । केशरा ने भी उसे प्रीतिपूर्ण नयनों से देखा । पूर्व जन्म के प्रेम के फलस्वरूप वे परस्पर आकृष्ट हो गए । बसन्तदेव ने जयन्ती नगरी के एक वणिक पुत्र प्रियंकर से पूछा - 'भद्र, वह कौन है ? किसकी लड़की है ?' प्रत्युत्तर में प्रियंकर ने कहा - 'वह श्रेष्ठी पंचनन्दी की कन्या और जयन्तीदेव की बहन है । उसका नाम केशरा है । वह अभी अविवाहित है ।'
( श्लोक ४०३ - ४०८ ) 'वसन्तदेव ने जयन्तीदेव के साथ व्यावसायिक सम्बंध स्थापित किया । फलतः दोनों में बन्धुत्व स्थापित हुआ और वे एक-दूसरे के घर आने-जाने लगे । एक दिन जयन्तीदेव ने वसन्तदेव को अपने घर भोजन के लिए आमन्त्रित किया । बन्धुत्व का दोहद ऐसा ही होता है । वहां वसन्तदेव ने नेत्रों के लिए चन्द्रिका- सी केशरा को पुष्पों से कुसुमायुध की पूजा करते देखा । जयन्तीदेव ने अपने हाथों से वसन्तदेव को पुष्प माला दी । यह देखकर केशरा पुलकित हो गई और इसे एक शुभ शकुन माना । इससे दोनों हर्षित हुए | उन दोनों का प्रीतिपूर्ण व्यवहार वहां उपस्थित धात्री -पुत्री प्रियंकरा को दृष्टिगत हुआ । वह उनके मनोभावों को समझ