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गई । कारण जो बाह्य क्रिया और मुख के भावों से मनोभाव जाने सकता है उसके लिए हृदय को समझना कुछ कठिन नहीं है।
(श्लोक ४०९-४१३) 'केशरा के भाई ने वसन्त-सखा वसन्त की भांति वसन्तदेव का सत्कार किया। यह देखकर प्रियंकरा केशरा से बोली, 'तुम्हारे भाई ने उनका सत्कार किया अब तुम भी उनका यथोचित सत्कार करो।' केशरा युगपत् लज्जा भय और आनन्द से विह्वल होकर बोलीसखि, वह तो तुम्ही करो।' तब प्रियंकरा प्रियंग, कल्लोल आदि पुष्पों का गुच्छा वसन्तदेव के हाथों में देती हुई बोली-'मेरी सखी के हाथों से बनाया यह प्रेम पुष्प स्वीकार करिए।' वसन्तदेव ने भी वह मुझे चाहती है सोचकर आनन्दपूर्वक वह पूष्प-गुच्छ स्वीकार कर लिया। फिर स्व-नामांकित अंगूठी उसे देकर बोले'यह आपकी सखी को दे दीजिएगा। वे मेरे इस सामान्य उपहार को अवश्य ग्रहण करें। उन्होंने मेरे प्रति जो स्नेह प्रकट किया है वह स्नेह उत्तरोत्तर वृद्धिगत होता रहे। (श्लोक ४१४-४२०)
__ 'प्रियंकरा ने केशरा को अंगठी देकर वसन्तदेव ने जो कुछ कहा था उसे दोहरा दिया। जल सिंचन से बीज से अंकुरित होकर वृक्ष जैसे बढ़ता है उसी प्रकार वह बात सुनकर केशरा का प्रेम बढ़ने लगा। रात्रि के शेष याम में केशरा ने स्वप्न देखा मानो वसन्तदेव के साथ उसका विवाह हो रहा है। उसी समय वसन्तदेव ने भी ऐसा ही स्वप्न देखा। अनुरूप स्वप्न दर्शन विवाह से भी अधिक प्रीतिवर्द्धक होता है । आनन्द से पुलकित होकर केशरा ने वह स्वप्न प्रियंका को बताया। ठीक उसी समय कुल पुरोहित अन्य प्रसङ्ग में सहसा बोल उठे-'ऐसा ही होगा।' यह सुनकर प्रियंकरा बोली, 'स्वप्न दर्शन और इस शकुन से प्रतीत होता है वसन्तदेव ही तुम्हारा पति होगा।' 'आओ शकुन को दृढ़ करें'-ऐसा कहकर वह वसन्तदेव के पास गई और केशरा के स्वप्न की बात कही। अपने स्वप्न से केशरा के स्वप्न का सादृश्य देखकर वसन्तदेव ने सोचा मानो उनका विवाह पक्का हो गया है। प्रियंकरा बोली-'आर्य, केशरा आपकी ही है। अब निःसंकोच उसके साथ विवाह का आयोजन करिए।
(श्लोक ४२१-४२८) बसन्तदेव बोले, 'परम्परानुसार वह अवश्य ही होगा' कहकर