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करने वाली देशना दी । ( श्लोक ३७७-३८०) देशना की समाप्ति पर कुरुचन्द्र भगवान को प्रणाम कर पूछे भगवन्, मैंने पूर्व जन्म में ऐसा कौन - सा पुण्य किया था कि में राजा बना हूं। किस कर्म के कारण मैं प्रतिदिन पांच दिव्य प्राप्त करता हूं? मैं उन्हें स्वयं भोग न कर प्रियजनों को देने के लिए रख देता हूं; किन्तु अन्य किसी को दे नहीं पाता कर्मो का फल है ?
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भगवन्, यह कौन से ( श्लोक ३८१-३८३) भगवान शान्तिनाथ बोले, कुरुचन्द्र, पूर्व जन्म में तुमने मुनियों को दान दिया था इसी से तुम्हें यह राज्य प्राप्त हुआ है । वस्त्रादि जो पांच दिव्य वस्तुएँ तुम प्राप्त करते हो वह भी इसी पुण्य के कारण । तुम जो उनका उपभोग नहीं कर सकते उसका कारण है जो वस्तु बहुजनों के भोग के लिए है उसका भोग एक व्यक्ति नहीं कर सकता । तुम सोचते हो यह वस्तु मैं प्रियजनों को दूँगा; किंतु दे नहीं पाते । कारण तुम उन प्रियजनों को नहीं जानते । मैं तुम्हें तुम्हारे पूर्व भव की कथा सुनाता हूं । ( श्लोक ३८४-३८६)
'जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में कौशल नामक देश है । उस में श्रीपुर नामक एक नगर था । वहां चार वणिकपुत्र निवास करते थे । उनके नाम थे सुधन, धनपति, धनद, और धनेश्वर । वे समवयस्क थे और उनमें स्व-भाइयों सा प्रेम था । एकबार वे धनोपार्जन के लिए रत्नद्वीप गए । उनके साथ द्रोण नामक एक भृत्य था जो उनकी रसद आदि वस्तुओं को वहन करता था । रास्ते में एक वन पड़ा । उस वन को पार करने के समय उनके साथ लाया खाद्य द्रव्य यथेष्ट होने पर भी प्रायः निःशेष हो गया । उसी अवस्था में चलते हुए उन्होंने वृक्ष के नीचे प्रतिमाधारी ध्यानस्थ मुनि को देखा । उनके हृदय में भक्ति उत्पन्न होने पर उन्होंने सोचा - इन्हें कुछ आहार देना चाहिए । यह सोचकर उन्होंने द्रोण से कहा - 'भद्र, इन मुनि को कुछ आहार दो ।' द्रोण ने भी श्रद्धान्वित होकर उच्च भावना से मुनि को भिक्षा दी और महाभोग फल रूपी पुण्य उपार्जन किया | ( श्लोक ३८६-३९३) 'वहां से वे रत्नद्वीप गए। वहां वाणिज्य कर खूब धन उपार्जन किया । उस धन को लेकर वे स्व-नगर को लौट आए और सुखपूर्वक रहने लगे । उस पुण्य के कारण उनकी उन्नति हुई । स्वाति नक्षत्र