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उपयुक्त है।'
(श्लोक ३६५) ऐसा सुनकर चक्रायुध ने राज्यभार अपने समर्थ पुत्र को सौंपकर पैंतोस राजाओं सहित उसी समवसरण में श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली। वे भगवान शान्तिनाथ के गणधर बने। चक्रायुध
आदि इन ३६ गणधरों को भगवान ने उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त त्रिपदी का उपदेश दिया। इसी त्रिपदी के अनुसार उन्होंने द्वादशांगी की रचना की। प्रभु ने भी उन पर व्याख्या और गण का भार अर्पित किया।
(श्लोक ३६६-३६८) अनेक स्त्री-पुरुष उसी समय प्रभ से दीक्षित हए और अनेक ने सम्यक् दर्शन सहित श्रावक के बारह व्रत को ग्रहण किया। दिन का प्रथम याम समाप्त हो जाने पर प्रभु उठ खड़े हुए और मध्य प्रकार की अलङ्कार रूप पीठिका पर विश्राम ग्रहण किया। तब प्रभु के पादपीठ पर बैठकर गणधर प्रमुख चक्रायुध ने देशना देनी प्रारम्भ की। दिन के द्वितीय याम के शेष होने पर उन्होंने भी देशना देनी बन्द कर दी । देव मनुष्य सभी प्रभु को प्रणाम कर स्व-स्व स्थान को चले गए।
(श्लोक ३६९-३७२) भगवान शान्तिनाथ के समवसरण में गरुड़ यक्ष उत्पन्न हआ जिसका मुख शूकर की भाँति और जिसके दाहिने हाथों में एक में वीजोरा नींबू और दूसरे में कमल था। बाएँ दोनों हाथों में से एक में नकूल और दूसरे में अक्षमाला थी। ये भगवान के शासनदेव हए। उसी समय समवसरण में पद्मासना कनकवर्णा निर्वाणी यक्षी उत्पन्न हई । जिसके दोनों दाहिने हाथों में से एक में पुस्तक और दूसरे में नील कमल था और बाएँ हाथों में से एक में कलश और अन्य में कमल था। ये त्रिलोकपति की शासन देवी हुईं।
__ (श्लोक ३७३-३७६) यक्ष और यक्षिणी सहित भगवान शान्तिनाथ दूसरों के कल्याणार्थ जो मोक्ष प्राप्ति में समर्थ है उन्हें उपदेश देते हए पृथ्वी पर विचरण करने लगे। प्रव्रजन करते हुए वे एक दिन हस्तिनापुर नगर आए। यहां उनकी समवसरण सभा का आयोजन किया गया । प्रतिपदा की रात्रि को चन्द्र जैसे सूर्य से मिलता है उसी प्रकार उस नगर के राजा कुरुचन्द्र प्रजाजनों सहित प्रभु से मिलने आए। चतुर्विध संघ यथास्थान स्थित होने पर भगवान ने संसार से विरक्त