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११४] करें।
(श्लोक ३४६-३५०) 'रूई मक्खन आदि की भांति कोमल और पत्थर आदि की तरह कठोर स्पर्श से जो प्रीति-अप्रोति होती है वह हेय है ऐसा विचार कर राग-द्वेष को जीतो और स्पर्शन्द्रिय पर विजय प्राप्त करो। स्वादिष्ट अभक्ष्य पदार्थ और कट रस पर रुचि-अरुचि का त्याग कर रसनेन्द्रिय पर विजय प्राप्त करो। घ्राणेन्द्रिय में सुगन्धदुर्गन्ध के प्रविष्ट होने पर यह वस्तु का परिणाम है ऐसा विचार कर उसके राग द्वेष से रहित बनो । सुन्दर आकृति और असुन्दर आकृति देखकर जो हर्ष और विषाद उत्पन्न होता है उसका परित्याग कर चक्षु इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करो। वीणादि का मधुर स्वर सुनकर उस पर राग-द्वेष न कर श्रोत्रेन्द्रिय पर जय लाभ करो। संसार में ऐसा कोई इन्द्रिय विषय नहीं है जो मूलतः शुभ वा अशुभ है। संसार में ऐसा कोई विषय नहीं जिसका जीव ने पूर्व में भोग नहीं किया और उस पर राग-द्वेष के कारण कष्ट नहीं उठाया। तब फिर क्यों वह किसी विषय पर मुग्ध और किसी विषय पर विषादयुक्त होता है ? इन्द्रियों के विषय यदि मूलतः प्रिय और अप्रिय होते तब तो राग और द्वेष का प्रश्न ही नहीं उठता; किन्तु ऐसा नहीं है। यह तो मन का विभाव है। अतः मन के शुद्धत्व द्वारा जिनकी इन्द्रियां उपशान्त हो गई हैं जिनके कषाय क्षीण हो गए हैं वे अक्षीण स्थान मोक्ष प्राप्त करते हैं।'
(श्लोक ३५१-३५९) __ कानों के लिए अमृत तुल्य ऐसी देशना सुनकर मोक्ष प्राप्ति के अभिलाषी चक्रायुध प्रभु से बोले-हे स्वामिन, दुखों के आकर इस संसार के भय से मैं भीत हो गया हूं । जो विचक्षण हैं वे शक्तिशाली होने पर भी मनुष्य जन्म प्राप्त किया है इसका गर्व नहीं करते । ज्वलन्त गह के और डूबती हुई नौका के अधिकारी जिस प्रकार मूल्यवान द्रव्य संग्रहकर अन्यत्र चले जाते हैं उसी भाँति मैं भी जन्म, जरा मृत्यु से भयंकर इस संसार से मात्र आत्मा को लेकर आप की शरण ग्रहण करता हूं। भगवन , संसार समुद्र में पतित मुझ पर आप दया करें। मुझे संसार समुद्र को पार करने वाली नौका रूप दीक्षा दें।'
(श्लोक ३६०-३६४) भगवान ने कहा- 'तुम्हारे जैसे विवेकवान के लिए यह