________________
[११३
हाथ पांव और इन्द्रियां काट दी जाती हैं, यहां तक कि मृत्यु दण्ड तक दिया जाता है । अधिक कहने को क्या है ? कारण, जो मनुष्य के श्रद्धापात्र हैं वे भी इन्द्रियों के वशीभूत होते है, साधारण लोगों के लिए परिहास का विषय बनते हैं। एक वीतराग को छोड़कर संसार के समस्त जीव, इन्द्र से लेकर साधारण कीट तक सभी इन्द्रियों के वशीभूत है।
(श्लोक ३३१-३३८) _ 'हस्तिनी के स्पर्श सुख के लिए हस्ती अपनो सूड बढ़ाकर अग्रसर होता है और आलान-स्तम्भ के बन्धन में चड़ जाता है। अगाध जल में विचरण करने वाला मत्स्य काँटे में लगे कोट को खाने के लोभ से उसे गले में उतारता है और धीवर के हाथ में पड़ जाता है। मत्त गजराज के मदगन्ध से आकृष्ट भ्रमर उसके गण्डस्थल पर बैठता है और कान के चपेटाघात से पंचत्व को प्राप्त हो जाता है। स्वर्णवर्णीय दीपशिखा के आलोक पर मुग्ध होकर पतंग उस ओर दौड़ता है और मृत्यु को वरण करता है । मनोहर संगीत श्रवण कर मुग्ध हरिण शिकारी के बाण से निहत होता है। मात्र एक इन्द्रिय के वशीभूत होकर जब ये सब मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो पांचों इन्द्रियों के जो वशीभूत हैं उनका तो कहना ही क्या ? एतदर्थ बुद्धिमान मनुष्यों के लिए यही उचित है कि वे मन को विषय-वासना से मुक्त करें, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करें । इन्द्रियों पर विजय प्राप्त किए बिना व्रत और कृच्छ साधनादि सभी व्यर्थ हो जाते हैं।
(श्लोक ३३९-३४५) ___ 'जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं करते वे कष्ट पाते हैं । इसलिए जो समस्त दुःखों से मुक्त होना चाहता है उसके लिए उचित है इन्द्रियों पर जय लाभ करना । कार्य से विरत होने से ही इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं होती बल्कि कार्य करते हुए भी जो राग-द्वेष से मुक्त हैं वे ही सचमुच विजयी हैं। इन्द्रिय विषयों के साथ रहकर इन्द्रियों का संभोग रोकना सम्भव नहीं । इसी लिए जो विज्ञ हैं वे उनसे राग-द्वेष हटा लेते हैं। जो संयमी होते हैं उनकी इन्द्रियां पराजित हैं। इन्द्रिय के विषय नष्ट होने पर आत्मा का हित नष्ट नहीं होता बल्कि अहित नष्ट होता है। जिनकी इन्द्रियां वशीभूत हैं वे मुक्ति लाभ करते हैं । जिनकी अनियन्त्रित हैं वे संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं। इस भेद को ज्ञात कर यथोचित मार्ग ग्रहण