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'हाय, चतुर्गति रूप इस संसार में जीवों के दुःखों के बहुत से कारण हैं । गृह जिस प्रकार चार स्तम्भों पर खड़ा रहता है उसी प्रकार यह संसार भी क्रोध, मान, माया व लोभ इन चार स्तम्भों पर खड़ा है । मूल के सूख जाने पर जिस प्रकार वृक्ष सूख जाता है उसी प्रकार जब कषाय नष्ट हो जाता है तब संसार भी नष्ट हो जाता है । अग्नि में तपाकर खाद को जलाए बिना जैसे स्वर्ण शुद्ध नहीं होता उसी प्रकार इन्द्रियों पर विजय प्राप्त किए बिना कोई कभी कषायों पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता । चपल और उन्मत्त अश्व मनुष्य को जैसे विपथ पर ले जाता है उसी प्रकार अग्नि-यन्त्रित इन्द्रियां बलपूर्वक उसे नरक में ले जाती हैं । जो इन्द्रियों के वशीभूत है वह कषायों द्वारा पराजित है । जिस दीवार के नीचे से ईंट निकल जाती है वह दीवर जैसे गिर जाती है उसी प्रकार इन्द्रिय अनियन्त्रित का वध बन्धन और पतन होता है । इन्द्रियों के अधीन होकर ऐसा कौन है जो दुःख- परम्परा से बच गया हो ? जो शास्त्रज्ञ हैं वे भी इन्द्रियों के वशीभूत होकर मूर्खो जैसा कार्य कर बैठते हैं । इन्द्रियों के अधीन होना कितना लज्जास्पद है, वह तो इससे ही प्रमाणित होता है कि महाराज भरत बाहुबल पर चक्र निक्षेप कर बैठे । बाहुबल की जय और भरत की पराजय इन्द्रिय पर जय और इन्द्रियों के वशीभूत होने का ही परिणाम है । जो जन्म उनका अन्तिम जन्म था ऐसे वे दोनों अस्त्र लेकर युद्ध करते हैं इसी से तो इन्द्रियों का प्रबल प्रताप प्रकाशित होता है । ( श्लोक ३२० - ३३०)
'पशु रूप मानव इन्द्रियों के वशीभूत हो जाते हैं यह तो समझ में आता है; किन्तु जो पूर्व जन्म को जानते हैं जिनका मोह उपशान्त है वे भी इन्द्रियों के वशीभूत हो जाते हैं । देव और मनुष्य इन्द्रियों के वशीभूत होकर कैसे-कैसे कुकर्म कर बैठते - यह कितने दुःख की बात है । इन्द्रियों के वशीभूत जो अखाद्य है वही खाते हैं, जो अपेय है उसका पान करते हैं, जहाँ जाना उचित नहीं वहाँ जाते हैं । इन्द्रियों के वशीभूत होकर ही तो वे उत्तम कुल और सदाचार का परित्याग कर वेश्या का दासत्व स्वीकारते हैं, नीच कर्म करते हैं । इन्द्रियों के प्रताप से ही मोहान्ध व्यक्ति पर द्रव्य और परस्त्री पर दृष्टि डालते हैं और इस दुष्कर्म के लिए उनके