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कारण, यह सनातन नियम है । प्रभु पूर्व दिशा में रखे सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठे । देवों ने अन्य तीन दिशाओं में उनके प्रतिरूप रखे । देव, असुर और मनुष्य अपने-अपने निर्दिष्ट द्वारों से प्रविष्ट होकर निर्दिष्ट स्थानों पर प्रभु की ओर मुख करके खड़े हो गए | उनके यान, वाहन निचले प्राकार में रख दिए गए । ( श्लोक २९४ - ३०५ ) सहस्राम्रवन उद्यान के माली तब आनन्दपूरित नेत्रों से सम्राट् चक्रायुध के पास गए और बोले - 'महाराज, आज आपकी समृद्धि वर्द्धित हो गई है । कारण, सहस्राम्रवन में भगवान् शान्तिनाथ को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ है ।' यह सुनकर आनन्दित बने चक्रायुध ने उन्हें पारितोषिक दिया और उसी समय प्रभु के पास पहुंचे । उन्हें प्रदक्षिणा देकर प्रणाम करके इन्द्र के पीछे जाकर बैठ गए । प्रभु को पुनः वन्दना कर इन्द्र और चक्रायुध ने भक्ति गद्गद् कण्ठ से उनकी इस प्रकार स्तुति की : ( श्लोक ३०६-३१०)
' हे जगन्नाथ, आपके माध्यम से पृथ्वी
आज आनन्दित हो गई है । हे ज्ञान रूपी सूर्य ! आपके उदय से पृथ्वी आलोकित हो उठी है । हे जगद्गुरु आनन्द के कल्पवृक्ष रूप, पूर्व जन्म के संचित पुण्य से मैंने आज आपके कल्याणक को प्राप्त किया है । हे त्रिलोकनाथ आपके दर्शन रूप स्रोत के जल ने जीव मात्र के वासनादि द्वारा कलुषित मन को धोकर पवित्र कर दिया है । कर्मनाश कर आप जब तीर्थङ्करत्व प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे थे तब वह निज स्वार्थ के प्रति वैराग्य और अन्य के प्रति करुणा रूप थी । संसार भय से भीत मनुष्यों के लिए आपका यह समवसरण महादुर्ग की तरह आश्रय रूप हो गया है । आप सबके अन्तःकरण को जानते हैं और सबका कल्याण करते है । अतः आप से कोई प्रार्थना नहीं करनी है । फिर भी हे नाथ, हम यही प्रार्थना करते हैं - पृथ्वी पर विचरण करते समय आप जिस प्रकार ग्राम, खान, नगर आदि का परित्याग करते हैं उसी प्रकार हमारे हृदयों का परित्याग न करें । हे भगवन्, आपके चरण-कमलों बनकर सर्वदा संलग्न रहे ।'
में
हमारा मन भ्रमर ( श्लोक ३११-३१८ ) चक्रायुद्ध चुप हो गए ( श्लोक ३१९ )
इस प्रकार स्तुति कर जब इन्द्र और तब भगवान शान्तिनाथ दे देशना प्रारम्भ की।