________________
११०]
1
राज्य, रत्न, अलङ्कार, माल्य आदि का परित्याग किया । ज्येष्ठ मास की कृष्णा चतुर्दशी के दिन चन्द्र जब भरणी नक्षत्र में अवस्थित था सिद्धों को नमस्कार कर दो दिनों के उपवासी उन्होंने एक हजार राजाओं सहित दीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षा ग्रहण के साथ-साथ उन्हें मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न हो गया । दूसरे दिन मन्दिरपुर के राजा सुमित्र के घर क्षीरान ग्रहण कर दो दिन के उपवास का पारणा किया । देवों ने रत्न वर्षादि कर वहां पांच दिव्य प्रकट किए । प्रभु जहां खड़े हुए थे वहां राजा सुमित्र ने एक रत्नवेदी का निर्माण करवाया । बिना कहीं बैठे, बिना कहीं सोए, निःस्पृह, संसार के बन्धनों से रहित, मूल और उत्तरगुणधारी भगवान् शान्तिनाथ पृथ्वी पर विचरण करने लगे । ( श्लोक २८५ - २९० ) इस भांति विचरण करते हुए एक वर्ष पश्चात् हस्तिनापुर के उसी सहस्राम्रवन उद्यान में वे फिर लौट आए। दो दिनों का उपवास किए नन्दी वृक्ष के नीचे जब वे शुक्ल ध्यान में बैठे थे तब घाती कर्मों के क्षय हो जाने से उसी मुहूर्त्त में वहीं उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । उस दिन पौष शुक्ला नवमी थी और चन्द्र भरणी नक्षत्र में अवस्थित था । ( श्लोक २९१ - २९३ ) सिंहासन कम्पित होने से प्रभु को केवल ज्ञान हो गया है जानकर इन्द्र देवों सहित वहां आए। देवों ने भृत्य की भांति घूर्ण - वायु उत्पन्न कर एक योजन व्यापी स्थान को धूल, कङ्कर, घास आदि से मुक्त किया । धूल शान्त करने के लिए दिव्य सुगन्धित जल की वर्षा की । तदुपरान्त घुटनों तक पुष्पों की वर्षा की । स्वर्ण शिलाओं से उस स्थान को उन्होंने आच्छादित किया । पूर्व और अन्य दिशाओं में उन्होंने सुन्दर तोरण द्वार निर्मित किए । मध्य में एक रत्नवेदी बनाई और चातुर्दिक चित्र-विचित्र दरवाजे बनाए | सोना, चांदी एवं रत्नों से तीन प्राकारों की रचना की । रत्नमय सर्वोच्च प्राकार के बीच उन्होंने एक सौ अस्सी धनुष दीर्घ एक चैत्य वृक्ष निर्मित किया । चैत्य वृक्ष के नीचे एक अनन्य वेदी की रचना की और उस पर पूर्वाभिमुख कर एक रत्न - सिंहासन रखा । तब पूर्व द्वार से चौंतीस अतिशय से युक्त प्रभु शान्तिनाथ ने उस समवसरण में प्रवेश किया । जगद्गुरु ने उस चैत्य वृक्ष को नमस्कार कर 'नमो तीर्थाय' कहकर चतुविध संघ को नमस्कार किया ।