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है ? तो क्या मेरा प्रयाणकाल समुपस्थित है ? या कोई मेरी समृद्धि को देख नहीं सकने के कारण मेरा सिंहासन कम्पित कर रहा है ? ऐसा विचार आते ही अवधि ज्ञान का प्रयोग कर वे जान गए कि चक्री और भावी धर्म चक्री शान्तिनाथ आए हैं । तब मगध तीर्थाधिपति मन ही मन विचार करने लगे - हाय ! अज्ञान के वशवर्ती होकर मैंने ऐसी बाल सुलभ कल्पना क्यों की ? स्वयं सोलहवें तीर्थंकर और पंचम चक्रवर्ती मुझ पर करुणा कर वहां से देख रहे हैं । उनकी तुलना में मैं क्या ? मानो सूर्य की तुलना में एक खद्योत् । वे त्रिलोकनाथ है । उनकी दीर्घ भुजाएँ त्रिलोक की रक्षा व विनष्ट करने में समर्थ हैं । जिसके सम्मुख अच्युतादि इन्द्र भी भृत्य की भाँति खड़े रहते हैं उनका मुझ जैसा क्षुद्र क्या सम्मान करेगा ? फिर भी त्रिलोकपति यहाँ आए हैं तो सूत्र द्वारा जैसे चांद को सम्मानित किया जाता है वैसे ही अपने नगण्य ऐश्वर्य से मैं उनका सम्मान करूँगा । ( श्लोक १३४ - १४२ ) ऐसा सोचकर मगध तीर्थाधिपति उपहार सहित शान्तिनाथ के पास आए और आकाश में स्थित होकर उन्हें प्रणाम करते हुए बोले - 'हे त्रिलोकनाथ, मेरे सौभाग्यवश ही मुझ जैसे सामान्य व्यक्ति को आपके सम्मुख आने का अवसर आपने दिया है । दुर्गाधिपति जिस प्रकार आपका आदेश पाकर दिवारात्रि दुर्ग की रक्षा करता है मैं भी उसी प्रकार आपका आज्ञावाही होकर पूर्व दिशा का रक्षक बनकर रहूंगा ! ' ( श्लोक १४३-१४५) ऐसे कहकर उन्हें प्रणाम कर भृत्य की भांति दिव्य अलङ्कार और वस्त्र उपहार में दिए । शान्तिनाथ ने उन्हें सम्मानित कर बिदा किया। तब चक्ररत्न ने दक्षिण दिशा की ओर चलना प्रारम्भ किया । शान्तिनाथ भी चक्र का अनुसरण करते हुए निर्विघ्न रूप से अगणित सैन्य बल सहित दक्षिण समुद्र के तट पर पहुंचे । समुद्र तट पर रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठ कर वे वरदामपति का ध्यान करने लगे । वरदामपति अवधि ज्ञान से पंचम चक्री का आगमन जानकर विनाश से त्राण पाने के लिए उपहार लेकर उनके सम्मुख उपस्थित हुए। फिर चक्री को प्रणामकर उनका दासत्व स्वीकार करते हुए उन्हें दिव्य वस्त्रालङ्कार उपहार दिए । त्रिलोकीनाथ ने भी उन्हें आप्यायित कर विदा दी । तब चक्र ने पश्चिम दिशा की ओर प्रयाण