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किया है । यथासमय तुम एक पुत्र को जन्म दोगी ।' स्वामी से यह सुनकर वह सुबह के मेघ गर्जन को सुनकर पृथ्वी जैसे आनन्दित होती है वैसे ही आनन्दित हो गई और उसी समय से अपने गर्भ को सुचारु रूप से धारण करती रही । यथासमय उसने एक सर्व सुलक्षण युक्त मानो उसके पति का ही प्रतिरूप हो ऐसे एक पुत्र को जन्म दिया । यशोमती ने स्वप्न में चक्र को अपने मुख में प्रविष्ट होते देखा था अतः पिता ने उसका नाम रखा चक्रायुध । धात्रियों द्वारा पालित होता हुआ पृथ्वी के तिलक स्वरूप चक्रायुध शिशु हस्ती की तरह क्रमशः बड़ा होने लगा । बड़े होने पर अपने पिता की भांति ही बहुत सी सुन्दर राजकन्याओं के साथ उसका विवाह कर दिया गया । ( श्लोक ११५ - १२४) राज्य शासन करते हुए इस भांति शान्तिनाथ को पच्चीस हजार वर्ष व्यतीत हो गए। देवलोकों में जिस प्रकार देवों का उपपात होता है वैसे ही शान्तिनाथ की आयुधशाला में उज्ज्वल प्रभा सम्पन्न एक चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । चक्र के लिए उन्होंने अष्टा महोत्सव किया । पूज्य होने पर भी जो पूजा के योग्य हैं उसकी पूजा वे भी करते हैं । सूर्य जैसे समुद्र का परित्याग करता है उसी प्रकार वह चक्र आयुधशाला का परित्याग कर दिग्विजय श्री को प्राप्त करने के लिए पूर्वाभिमुख होकर चलने लगा । अरकी भांति एक हजार यक्ष द्वारा रक्षित उस चक्र का पृथ्वी आच्छादनकारी अपनी सैन्य सहित रारा अनुसरण करने लगे । प्रतिदिन एक योजन पथ अतिक्रम कर वह चक्र जहां रुकता शान्तिनाथ भी वहां १२ योजन परिमाण स्कन्धावार का निर्माण कर अवस्थित होते । इस प्रकार पथ अतिक्रम कर वे पूर्व समुद्र के अलङ्कार रूप मगध तीर्थ में आकर उपस्थित हुए दीर्घस्कन्ध शान्तिनाथ ने समुद्र सैकत पर एक ऐसे स्कन्धावार का निर्माण करवाया जिसमें समुद्र के मध्य भाग में प्रवेश की तरह प्रवेश प्रायः असम्भव था । बिना रक्तपात के युद्ध जय की इच्छा से वे मगध तीर्थ की तरफ मुख करके सिंहासन पर बैठ गए। तब बारह योजन दूरवर्ती मगधपति का सिंहासन मानो उसका एक पाया भंग हो गया हो इस प्रकार कांपने लगा । मगधपति तब मन ही मन सोचने लगे : (श्लोक १२५-१३३) यह कैसा अघटित हो रहा है कि मेरा सिंहासन काँपने लगा