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बद्ध भाव से विकसित होते हैं उसी प्रकार रमणियों के समस्त गुण उनमें विकसित हुए थे। विश्वसेन और अचिरा ने इन्द्र और इन्द्राणी की तरह सुख भोग करते हुए दीर्घकाल व्यतीत किया।
(श्लोक १०-२४) अनुत्तर विमान के सर्वश्रेष्ठ स्थान सर्वार्थसिद्धि-से मेघरथ का जीव पूर्णायु भोग कर भाद्र कृष्णा सप्तमी को चन्द्र जब भरणी नक्षत्र में था वहाँ से च्युत होकर रानी अचिरा के गर्भ में प्रविष्ट हआ। रात्रि के शेष याम में जब वे सुख-शय्या पर शायीन थीं तब उन्होंने चौदह महास्वप्नों को अपने मुख में प्रवेश करते देखाः मदगन्ध से आकृष्ट भँवरों की गुजार से मानो उनके मुख में प्रवेश करना चाह रहे हों ऐसा एक श्वेत हस्ती, कैलाश पर्वत की शुभ्रता मानो जीवन्त हो उठी हो या समस्त श्वेत कमलों की शुभ्रता को आत्मसात् कर लिया हो ऐसा एक श्वेत वृषभ, जिसकी पूछ रत्नकमल की कलिका-सी लगती थी, ऐसे ही पूछ उठाए एक केशरी सिंह, मानो उनकी ही द्वितीय आकृति हो ऐसी हस्तीद्वय द्वारा अभिसिंचित लक्ष्मी, मानो आकाश में इन्द्रधनुष उदित हुआ हो या श्री व आकाश को अलंकृत किया हो ऐसी पंचवर्णीय दिव्य पुष्पमालाएँ, स्वर्ग के दर्पण रूप कौमुदी मण्डित पूर्णचन्द्र, रात्रि को भी जो दिन की तरह उज्ज्वल कर दे ऐसा सहस्रमाली सूर्य, नृत्यरत क्षद्र पताकाओं की मानो नत्यशाला हो व दृष्टि के लिए आनन्द-सा नयनाभिराम एक ध्वजदण्ड, विकसित सुरभियुक्त कमलों से जिसका मुख आवृत है ऐसा जलपूर्ण एक कुम्भ, श्री की मानो पीठिका या विकसित कमल का मानो हृद हो ऐसा कमल शोभित जलपूर्ण सरोवर, तरंगरूपी हाथों से आकाश स्थित मेघ को जो स्पर्श करना चाहता हो ऐसा अनन्त-विस्तृत एक समुद्र, ध्वजाओं से शोभित रत्न-जड़ित स्वर्गीय प्रासाद-सा एक अतुलनीय विमान, देवताओं के निर्माण के लिए रक्षित परमाणु पुज जिसे आलोक विच्छरित हो रहा हो ऐसी रत्नराशि, लप-लप करती जिह्वा की भाँति लपलपाती शिखा जो समग्र अन्धकार का ग्रास करना चाह रही हो ऐसी निधूम अग्नि ।
(श्लोक २५-४१) रानी अचिरा ने नींद से जागकर राजा विश्वसेन को स्वप्नों से अवगत कराया। सुनकर राजा बोले, 'इन स्वप्नों के दर्शन से मुझे