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[९३ करतीं। विपणि श्रेणियों में प्रलम्बित रत्नमालाएँ देखकर ऐसा लगता मानो समस्त उदधियों से रत्न आहरण कर लिया गया है। हवा में हिलती मन्दिर स्थित पताकाओं की छाया धर्मरूपी सम्पद की रक्षा के लिए नियुक्त अजगरों का भ्रम उत्पन्न करती थीं। प्रतिगह का गह-प्रांगण इन्द्रनील मणियों से निर्मित होने के कारण जलपूर्ण क्रीड़ावापी-सा लगता था ।
(श्लोक ३-९) इस नगरी के राजा का नाम था विश्वसेन । इक्ष्वाकु वंश के चन्द्र-से वे सभी के नयनों के आनन्द थे। उनकी कीर्तिरूपी कौमुदी से यह पृथ्वी आलोकित थी। जो उनकी शरण ग्रहण करते उनके लिए वे वज्रगृह रूप थे, याचकों के लिए कल्पतरु तुल्य और श्री एवं वाक् का सौहार्दपूर्ण मिलन-स्थल । उनकी असीम कीर्ति मानो द्वितीय समुद्र ही थी; समुद्र जैसे विशाल नदियों को ग्रास कर लेता है वैसे ही वे शत्रुओं की कीर्तिगाथा का ग्रास कर लेते थे। उनके प्रताप से जब समस्त शत् ही दमित हो गए थे तब अस्त्रशस्त्रों का व्यवहार तो होता ही कैसे ? पण्यद्रव्य की भाँति वे आयुधशाला में ही संरक्षित रहते । जो युद्ध चाहता उसके कण्ठ पर वे पैर रखते, जो शरण चाहता उसकी पीठ पर हाथ, मानो दोनों के प्रति ही वे निरपेक्ष थे। युद्ध क्षेत्र में म्यान से निकाली उनकी तलवार आगत विजयश्री का मानो कोष ही थी। नीति उनकी अनुज थी, यश उनकी प्रिया, गुण मित्र और राज्योपाधि भृत्य । अतः उनके सहचर ऐसे लगते मानो देह से ही निर्गत हुए हों। पृथ्वी को आनन्द देने के लिए ही वे ऊँचे पद पर आसीन थे। मेघ में बिजली-सी अचिरा नामक उनकी पत्नी थी। रमणियों में वह चूड़ामणि थी, गुणों में भी वैसे ही सच्चरित्रा थी। साध्वी पत्नियों में अग्रगण्या वे बाहर में जैसे मुक्तामाला को धारण किया जाता है उसी तरह पति को दिन-रात हृदय में धारण किए रहती थीं। उनका रूप देखकर लगता था मानो स्वर्ग की देवियों का निर्माण भी उनके निर्माण के पश्चात् अवशिष्ट परमाणुओं से हुआ था। जाह्नवी जैसे पृथ्वी को पवित्र करती है उसी प्रकार पृथ्वी-वन्दिता वे पृथ्वी को पवित्र करती थी। विनय से झके उनके कन्धों को देखकर लगता मानो सस्नेह वे धरती को देख रही हों कारण वह पृथ्वी उनके स्वामी द्वारा रक्षिता थी। सोमनस वन में विविध वर्ण के फूल जैसे पंक्ति