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लगता है तुम्हारे सर्वगुण युक्त त्रिलोक रक्षक एक पुत्र होगा '
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( श्लोक ४२-४३ )
दिन में बुलाए गए नैमित्तिकों ने भी यही बात कही । बोले'देव, इन स्वप्नों के दर्शन के फलस्वरूप आपका पुत्र या तो राज्य चक्रवर्ती होगा या धर्म चक्रवर्ती तीर्थंकर होगा ।' राजा ने यह सुनकर उन्हें पुरस्कृत कर विदा किया । रानी पृथ्वी की तरह पुत्ररत्न को गर्भ में धारण किए हुए रही । ( श्लोक ४४-४५ )
उस समय कुरुदेश में व्याधि, महामारी आदि के प्रकोप से विभिन्न प्रकार से लोकक्षय हो रहा था । प्रजा ने शान्ति के लिए बहुत से उपाय ज्ञात कर उनका प्रयोग किया; किन्तु बड़वानल की तरह वह शान्त नहीं हो रहा था; किन्तु महारानी अचिरा देवी के गर्भ में उत्तम जीव के आगमन मात्र से ही वह शान्त हो गया । कारण तीर्थंकरों के अतिशय की कोई सीमा नहीं होती ।
( श्लोक ४६-४८ ) नौ महीने साढ़े सात दिन व्यतीत होने पर ज्येष्ठ मास की कृष्णा त्रयोदशी के दिन चन्द्र जब भरणी नक्षत्र में था और समस्त ग्रह उच्च स्थान में थे, तब अचिरादेवी ने पूर्व दिशा जैसे मृगलांछन चन्द्रको जन्म देती है वैसे से मृगलांछन एक पुत्र को जन्म दिया | मुहूर्त भर के लिए त्रिलोक में सर्वत्र एक आलोक परिव्याप्त हो गया जिससे नरक के जीवों ने भी पल भर के लिए आनन्द का अनुभव किया । ( श्लोक ४९-५१ ) दिक्कुमारियों का आसन कम्पित हुआ । अवधिज्ञान से तीर्थकर का जन्म अवगत कर वे आनन्दित हुईं । अधोलोक की आठ दिक्कुमारियां तीर्थङ्कर के गृह में आईं और तीर्थङ्कर एवं उनकी माता को यथाविधि प्रणाम कर माता को अपना परिचय दिया और 'डरिए मत' ऐसा कहकर घूर्णिवायु से एक योजन तक की भूमि की धूल को दूर किया । फिर जिनेन्द्र और जिनेन्द्र की माता से न अधिक दूर, न अधिक पास खड़े होकर उनका गुणगान करने लगीं । ऊर्ध्वलोक से भी पूर्वानुसार आठ दिक्कुमारियां आईं और वारि वर्षण कर भूमि को स्वच्छ कर वे भी उनकी तरह खड़ी रहकर गीत गाने लगीं । पूर्व रूचक से आठ दिक् कुमारियाँ आईं और हाथ में दर्पण लेकर जिन और जिन माता को प्रणाम कर