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अतिक्रम करना अत्यन्त दुष्कर है वह अब आपका कृपा से गोष्पद जल की तरह सहज हो गया है। मैं अन्य किसी स्वर्ग का आधिपत्य नहीं चाहता न ही अनुत्तर विमान में निवास- मैं तो आपके चरणकमलों की सेवा करना चाहता हूं।'
(श्लोक ४२-४९) इस प्रकार स्तुति कर शक्र भगवान् को लेकर द्रुतगति से कौशाम्बी को लौट गए और उन्हें देवी सुसीमा के पार्श्व में सुलाकर स्वर्ग को चले गए।
(श्लोक ५०) भगवान् जब गर्भ में थे तब आपकी माँ को पद्मशैया पर सोने का दोहद उत्पन्न हुआ। उनकी देह का रंग भी पद्मवर्ण था अतः पिता ने आपका नाम पद्मप्रभ रखा । स्वर्ग की धात्रियों द्वारा लालित होकर और देवों के साथ क्रीड़ा कर भगवान् क्रमशः बड़े होने लगे और जीवन का द्वितीय भाग अर्थात् यौवन को प्राप्त किया।
(श्लोक ५१-५२) दो सौ पचास धनुष दीर्घ, विस्तृत वक्ष भगवान् श्री का प्रवाल निर्मित क्रीड़ा-पर्वत से लगते । संसार-त्याग की इच्छा होने पर भी पिता-माता की भावना और जन-साधारण को आनन्दित करने के लिए प्रभ ने विवाह किया। जब उनकी उम्र साढ़े सात लाख पूर्व हई तब पिता के आग्रह से आपने राज्यभार ग्रहण किया। जगत्पति ने साढ़े इक्कीस पूर्व और सोलह पूर्वाङ्ग राज्य-शासन में व्यतीत किए। शुभ मुहूर्त में जिस प्रकार सार्थवाह यात्रा के लिए उन्मुख हो जाता है उसी प्रकार संसार-सागर को पार करने के इच्छुक प्रभु लोकान्तिक देवों द्वारा दीक्षा ग्रहण के लिए उद्बुद्ध किए गए। उन्होंने एक वर्ष तक दान दिया। जृम्भक देव कुबेर द्वारा प्रेरित होकर भगवान् के सम्मुख धन-रत्न उपस्थित करने लगे। देवों और राजन्यों द्वारा अभिनिष्क्रमण उत्सव आयोजित होने पर निवृत्तिकरा नामक शिविका में बैठकर सहस्राम्रवन उद्यान में गए। कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के अपराल में चन्द्र जब चित्रा नक्षत्र में आया प्रभु ने दो दिनों के उपवास के पश्चात् एक हजार राजाओं के साथ श्रमण दीक्षा ग्रहण की। (श्लोक ५३-६१)
__दूसरे दिन सुबह प्रभु ने ब्रह्मस्थल नगर के राजा सोमदेव के घर खीरान से पारणा किया । देवों ने वहां पांच दिव्य प्रकट किए। जहां प्रभु पारने के लिए खड़े हुए थे वहां सोमदेव राजा ने मणिमय