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वेदी का निर्माण करवाया।
(श्लोक ६२-६३) छह महीने तक उन्होंने छद्मस्थ रूप में विचरण किया। पूनः अपनी दीक्षा के साक्षी रूप सहस्राम्रवन में लौट आए। दो दिनों के उपवास के पश्चात् वटवृक्ष तले जब वे प्रतिमा धारण कर खड़े थे तब हवा जिस प्रकार मेघ को उड़ाकर ले जाती है उसी भाँति उनके घाती कर्म क्षय हो गए। चैत्र मास की पूर्णिमा को चन्द्र ने जब चित्रा नक्षत्र में प्रवेश किया तब भगवान् पद्मप्रभ ने निर्मल केवलज्ञान प्राप्त किया।
(श्लोक ६४-६५) देवेन्द्रों और असुरेन्द्रों ने उनके लिए समवसरण की रचना की। प्रभु उस समवसरण में पूर्व द्वार से प्रविष्ट हुए। प्रवेश कर उन्होंने जिस प्रकार इन्द्र ने उन्हें प्रदक्षिणा दी थी उसी प्रकार डेढ़ कोश ऊँचे चैत्य वक्ष की प्रदक्षिणा दी और तीर्थ को नमस्कार कर उसकी वन्दना की। फिर प्रभु पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठे। प्रभु की शक्ति से देवों ने उन्हीं के अनुरूप मूत्तियाँ निर्माण कर अन्य तीन दिशाओं में रखीं। चतुर्विध संघ भी समवसरण में यथायोग्य स्थानों में जाकर बैठ गए। मेघ को देखने के लिए जिस प्रकार मयूर मस्तक ऊँचा करता है उसी भाँति प्रभु को देखने के लिए वे मस्तक ऊँचा किए बैठे। तदुपरान्त सौधर्मेन्द्र प्रभु को वन्दना कर भक्ति सहित निम्नलिखित स्तुति करने लगे जो कि निःसन्देह सत्य ही थी।
(श्लोक ६६-७१) __ 'उपसर्गों को सहन कर, विविध आक्रमणों को व्यर्थ कर आपने प्रशान्ति के आनन्द को प्राप्त किया है। महान् व्यक्तियों का आचरण ऐसा ही होता है। आप लोभ-शून्य होकर राग-शून्य हो गए हैं। द्वेष-शून्य होकर क्रोध को जय किया है। आप में जो शक्ति है उसे साधारण मनुष्यों के लिए प्राप्त करना कठिन है। आपने सर्वदा आसक्तिहीन और पाप-भय से भीत होकर त्रिलोक को जय किया है। महान् व्यक्तियों की कुशलता ऐसी ही होती है। आप न कुछ ग्रहण करते हैं और न कुछ देते हैं। फिर भी आपने यह क्षमता प्राप्त की है। महान व्यक्तियों के कार्य ऐसे ही होते हैं । हे भगवन्, जो ऐश्वर्य प्राणपात परिश्रम से भी प्राप्त नहीं किया जा सकता वही ऐश्वर्य आपके पद-प्रान्त पर पड़ा हुआ है। कारण आप राग के प्रति निष्ठुर और जीवों के प्रति करुणा-सम्पन्न हैं अतः भयंकर भी