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जब वे बोलतीं तब उनकी दन्त पंक्तियों से निकलती ज्योत्सना से चन्द्रकौमुदी स्नात रात्रि-सी लगतीं । ( श्लोक २८-३२ ) राजा अपराजित का जीव ग्रैवेयक विमान में इकतीस सागर की आयु व्यतीत कर माघ कृष्णा षष्ठी को चन्द्र जब चित्रा नक्षत्र में था वहाँ से च्यवकर देवी सुसीमा के गर्भ में प्रविष्ट । हुआ तीर्थंकर के जन्म सूचक चौदह महास्वप्नों को उन्होंने अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा । गर्भवति होने पर उन्हें पद्म शय्या पर सोने का दोहद उत्पन्न हुआ जिसे देवियों ने मुहूर्त भर में पूर्ण कर दिया । नौ मास साढ़े सात दिन व्यतीत होने पर कार्तिक कृष्ण द्वादशी को चन्द्र जब चित्रा नक्षत्र में था और सभी ग्रह उच्च स्थान में थे तब रानी सुसीमा ने एक पुत्र को जन्म दिया । लाल कमल उसका लांछन था और देह का रंग भी लाल कमल-सा ही था । ( श्लोक ३३-३८ ) तीर्थंकर का जन्म होते ही छप्पन दिक् कुमारियाँ आयीं और जन्मकालीन क्रियाओं को सम्पन्न किया । फिर इन्द्र आए और प्रभु को सुवर्णाद्रि के शिखर पर ले गए। वहाँ अच्युत और अन्यान्य इन्द्रों ने शक्र की गोद में बैठे भगवान् के सहोदर की तरह यथाक्रम स्नानाभिषेक किया । ईशानेन्द्र की गोद में बैठाकर शक्र ने भी प्रभु का स्नानाभिषेक पूजा आदि कर निम्नलिखित स्तुति पाठ किया :
( श्लोक ३९-४१ )
'इस असार संसार में दीर्घकाल तक मरुभूमि में विचरण करने वाले व्यक्ति की भाँति आपका दर्शन हे भगवन् अमृत-सरोवर तुल्य है | आपकी अनुपम रूप-सुधा अक्लान्त भाव से पान कर देवों के अनिमेष नेत्र सार्थकता प्राप्त हुए हैं । चिर अन्धकार में भी जो आलोक रेखा प्रकाशित हुई है, नारकी जीवों को भी जिसने आनन्द दिया है वह आपकी तीर्थकृत देह के कारण ही हुआ है । हे भगवन्, दीर्घ दिनों के पश्चात् मनुष्यों के भाग्य से धर्मरूपी वृक्ष को करुणा रूपी वापी के जल से पुष्पित करने के लिए ही आपने जन्म लिया है । जल में जिस प्रकार शीतलता सहजात होती है उसी प्रकार त्रिजगत का स्वामित्व और त्रिविध ज्ञान आपको जन्म से ही प्राप्त है । हे कमलवर्ण कमललांछन, आपका निःश्वास भी कमल गन्धी है । आपका मुख कमल-सा है जो कि पद्मा (श्री) का निवास स्थल है । आपकी जय हो । हे भगवन् जिस असार संसार सागर को