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परिग्रहहीन होकर बहुत दिनों तक तलवार की धार जैसे व्रतों की रक्षा की। बीस स्थानकों में कई स्थानकों की आराधना कर उन निर्मलमना राजा ने तीर्थङ्कर गोत्र कर्म उपार्जन किया । वे महामना शुक्ल ध्यान में इस जीवन को व्यतीत कर मृत्यु के पश्चात् नवमें ग्रेवेयक विमान में महाशक्तिशाली देवरूप में उत्पन्न हुए।
(श्लोक १३-१७) जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में वत्स देश के अलङ्कार तुल्य कौशाम्बी नामक एक नगरी थी। ऊँचे मन्दिर के शिखर स्थित सिंहलांछन के समीप विचरण करने के कारण मृग लांछन के भीत हो जाने से चन्द्र यहां कलङ्क से रहित हो गया था । ऊँचे-ऊँचे महलों से निकलती अगरु धूप वस्त्र की तरह उन मिथुनों को आवृत्त कर देती जो विलास के लिए वस्त्रों का परित्याग कर देते थे। इस नगरी के प्रतिगृह में मुक्ता रचित स्वस्तिक को अनार का बीज समझकर शुक चञ्चु द्वारा उन पर आघात करता। यहां सभी समान धनी थे। फलतः कोई किसी से ईर्ष्या नहीं करता । केवल पवन ही उद्यान पुष्पों के सौरभ से ईर्ष्यान्वित था। (श्लोक १८-२२)
कौशाम्बी के राजा धर मेघ और पर्वत की तरह पृथ्वी का ताप हरते थे और उसे धारण करते थे। पृथ्वी के राजागण उनकी आज्ञा का उल्लङ्घन नहीं करते बल्कि अविच्छिन्न माल्य की तरह मस्तक पर धारण करते थे। यद्यपि दण्ड की तरह हाथ में धनुष धारण करते थे फिर भी दण्ड देने के समय वे निष्ठरता नहीं दिखाते थे बल्कि भद्रजातीय हस्ती की तरह शान्त भाव का अवलम्बन लेते, आधा चन्दन और आधी केशर की तरह यश और करुणा के मिश्रित पङ्क से उन्होंने बहुत दिनों तक आकाश को अभिषिक्त किया था। कुलदेव की तरह सभी गुणों ने उनका आश्रय लिया था। वे लक्ष्मी के निवास स्थल रूप थे।
(श्लोक २३-२७) साध्वी पत्नियों में अग्रणी देवीतुल्या सुसीमा नामक उनकी रानी थी। किसलयतुल्य करतल, पैर और ओष्ठ, पुष्पतुल्य दांत और शाखा-सी बाहुओं से वे कल्पवृक्ष-सी लगतीं । अवगुण्ठन किए वे धीरे-धीरे चलतीं, धरती पर दृष्टि रखकर चलतीं मानो वे ईर्यासमिति का पालन कर रही हों। उनकी देह सौन्दर्य-मण्डित थी, चारित्र विनय, मन संलीनता और वाक्य सत्य-मण्डित था।