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चतुर्थ सर्ग ॐ । भगवान् पद्मप्रभ जिनकी देह का रंग लाल पद्म-सा है और जो पद्मा के कमलतूल्य निवास-स्थल हैं, मैं उनकी वन्दना करता हूं। मन्द बुद्धि होते हुए भी उनकी अलौकिक शक्ति से पापनाशक उन्हीं जिनेन्द्र प्रभु के जीवन-चरित्र का वर्णन करता हूं।
(श्लोक १-२) धातकी खण्ड द्वीप में पूर्व विदेह के अलङ्कारतुल्य वत्स नामक विषय में सुसीमा नामक एक सुन्दर नगरी थी। वहां अपराजित नामक राजा राज्य करते थे जो कि शत्रुओं के लिए अपराजेय और इन्द्रियों को जय करने से मूर्तिमान धर्म स्वरूप थे। न्याय उनका मित्र था, धर्म आत्मीय और ऐश्वर्य । बन्धु-बान्धव, आत्मीय, स्वजन
और ऐश्वर्य तो सब बाह्य हैं । वृक्ष की शाखा-प्रशाखाओं की तरह शालीनता, चारित्र, सत्य आदि प्रमुख गुण एक दूसरे को शोभित करते थे। क्रोधहीन होकर वे राजा शत्रु पर शासन करते, रागहीन होकर विषय भोग और लोभहीन होकर विवेकियों में अग्रगण्य वे अर्थ भार वहन करते थे।
(श्लोक ३-७) ___ एक दिन देव तुल्य उन्होंने जब अर्हत वाणी रूप अमृत का पान किया तब तत्व-चिन्तन करते हुए उन्होंने सोचा-ऐश्वर्य, यौवन, सौन्दर्य, शरीर, मृगनयनी नारी, पुत्र, मित्र, प्रासाद आदि का परित्याग करना कठिन है। फिर भी जिस व्यक्ति ने जीवन में दुःख प्राप्त किया है या मर गया है उसे परिजन जिस प्रकार पक्षी नष्ट अण्डे का परित्याग कर देता है उसी प्रकार उसका परित्याग कर देते हैं। वह व्यक्ति मूर्ख है जो एक पांव से फलांगने की तरह केवल अपनी ओर से ही उनके प्रति आसक्त है। उस परिग्रह से विच्छिन्न तो होना ही पड़ता है। अतः पुण्य क्षय होने पर वे मेरा परित्याग करें उसके पूर्व ही क्यों नहीं मैं साहस के साथ उनका परित्याग कर दू ?
(श्लोक ८-१२) __ अनेक दिनों तक इसी प्रकार चिन्तन करते हुए विवेकियों में रोहण पर्वत तुल्य राजा को जब संसार से चरम विरक्ति हो गई तब स्व-राज्य पूत्र को दान कर वे पिहिताश्रव सूरि के पास जाकर मोक्ष प्राप्ति के लिए रथ तुल्य श्रामण्य अङ्गीकार कर लिया। उन्होंने तीन गुप्तियां और पांच समितियों को धारण कर रागहीन और