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मानो अस्वस्थ हो गई हैं। उन्होंने आहार ग्रहण नहीं किया, न बात की, न शृगार किया। केवल अन्तःकरणहीन पुतली की तरह लेटी रही।
(श्लोक २९-२३) परिचारिकाओं से यह खबर प्राप्त कर राजा उनके पास आए और स्नेहसिक्त कण्ठ से बोले-'देवी, जब मैं तुम्हारे वश में हूं तब तुम्हारी कौन-सी इच्छा पूरी नहीं हुई जो मरुभूमि में आई हंसिनी की तरह तुम इतनी दुःखी हो ? क्या तुम्हें किसी दुश्चिन्ता ने व्यथित किया है या तुम अस्वस्थ हो? तुम्हारे दुःखों का क्या कारण है मुझे बताओ। तुम्हारे और मेरे मध्य गोपनीय तो कुछ भी नहीं है।'
(श्लोक २४-२७) सुदर्शना दीर्घ निःश्वास छोड़ती हुई अवरुद्ध कण्ड से बोली -स्वामिन, जिस प्रकार कोई आपको अमान्य नहीं करता, आपके प्रताप से उसी प्रकार कोई मुझे भी अमान्य नहीं करता है। मुझे कोई दुश्चिन्ता भी नहीं है, न कोई व्याधि ही है। न मैंने कोई दुःस्वप्न देखा है न कोई अपशकुन हुआ है। अन्य कुछ भी ऐसा नहीं घटित हुआ है जो मुझे दुःखी करे। फिर भी एक विषय मुझे दुःखित कर रहा है कि जिसने पुत्र-मुख नहीं देखा उसका राजऐश्वर्य वथा है, सांसारिक सुख वथा है, प्रेम भी वथा है। धनियों का ऐश्वर्य देखकर दरिद्र जिस प्रकार लुब्ध हो जाता है उसी प्रकार पुत्रवान् रमणी को देखकर मैं भी लुब्ध हो गई हूं। संसार का समस्त सुख एक ओर रखें और दूसरी ओर पुत्र-प्राप्ति का सुख तो मेरे मन के तुलादण्ड पर जिधर पुत्र-प्राप्ति का सूख है उधर का ही पलड़ा भारी रहेगा। वन के हरिणादि जो कि शावकों द्वारा परिवत्त हैं मुझ पुत्रहीना से बहुत अधिक सुखी हैं। उनका वह सामान्य सुख भी काम्य है।'
(श्लोक २८-३३) तब राजा बोले- 'देवी, शान्त हो जाओ। मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ति के लिए देवों से प्रार्थना करूँगा। जो शक्ति द्वारा सम्पन्न नहीं होता, ज्ञानियों के लिए भी जो अलभ्य है, जहाँ मन्त्र भी कार्य नहीं करते उसे अन्य प्रकार से तो प्राप्त ही कैसे किया जा सकता है किंतु, मित्र भावापन्न देव उस कार्य को पूर्ण कर सकते हैं। अतः समझो तुम्हारी इच्छा पूर्ण ही हो गई है। शोक का परित्याग करो। मैं पुत्र-प्राप्ति के लिए निराहार रहकर कुलदेवी की आराधना