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कि अन्तःपुरिकाओं में अलंकार रूप एवं चन्द्रकला की भाँति सुन्दर थी । कुसुमायुध जिस प्रकार रति के साथ क्रीड़ा करते हैं उसी वे भी उसके साथ क्रीड़ा कर समय व्यतीत करते थे ।
प्रकार
( श्लोक ३-७)
एक दिन वे अनुचरों सहित उस उद्यान में गए जहाँ उत्सव मनाया जा रहा था अतः नगर के सभी अधिवासी समवेत हुए थे । रानी सुदर्शना भी मानो मूर्तिमती राज्यश्री हों इस प्रकार हाथी पर चढ़कर छत्र-चामर सहित वहाँ गयीं ? वहाँ उन्होंने दिक्कन्या- सी सुन्दर बहुमूल्य अलंकारों से भूषित आठ तरुणियों द्वारा सेवित एक स्त्री को देखा । अप्सराओं द्वारा जिस प्रकार शची सेवित होती है उसी प्रकार उसे सेवित होते देख रानी महान् आश्चर्य में डूब गई । ( श्लोक ८-११)
यह कौन है और कौन हैं वे जो इसकी सेवा कर रही हैं, जानने के लिए रानी सुदर्शना ने अपने अनुचरों को भेजा । अनुचरों ने पता लगाकर कहा - 'देवी, यह श्रेष्ठी नन्दीसेन की पत्नी सुलक्षणा हैं और वे कन्याएँ सुलक्षणा के दो पुत्रों की चार-चार पत्नियाँ हैं । वे अपनी सास की दासी की भाँति सेवा करने के लिए सदैव व्यग्र रहती हैं ।' ( श्लोक १२-१४ ) यह सुनकर रानी सुदर्शना सोचने लगीं - पुत्रवती, यह श्र ेष्ठी-पत्नी ही भाग्यवती है कि उच्चकुलजात सुन्दरी ऐसी पुत्रधुएँ प्राप्त की हैं जो कि नाग - कन्याओं की तरह उसकी सेवा कर रही है । और मैं इतनी भाग्यहीन हूं कि न मेरे पुत्र हैं न पुत्र बधुएँ | पति- वल्लभा होने पर भी मेरा यह जीवन व्यर्थ ही है । भाग्यवती
मणियों की गोद में ही जिस प्रकार वृक्ष पर मर्केट खेलते रहते हैं उसी प्रकार लोध्ररेणु से लिपटे शिशु हाथ-पाँव चलाते हुए खेलते रहते हैं । फलहीन द्रक्षालता की तरह, जलहीन पर्वत की तरह पुत्रहीन रमणियाँ भी निन्दनीय हैं, दुःखों का कारण है। जिसने कभी पुत्र जन्म, नामकरण, मुण्डन और उसका विवाहोत्सव नहीं मनाया उसके अन्य उत्सवों से प्रयोजन ही क्या है ? ( श्लोक १५-२० )
ऐसा सोचती हुई शीत- जर्जर कमलिनी की तरह विषण्णवदना रानी सुदर्शना दुःखित हृदय लिए घर लौटीं । उन्होंने परिचारिकाओं को दूर हटा दिया और निर्बल निष्पन्द होकर बिछौने पर लेट गई