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वह मानव होने पर भी देवों के लिए पूज्य है। हे भगवन्, आपके दर्शन मेरे लिए जो सर्वदा वासना-मुक्त नहीं है, रोग-ग्रस्त के लिए औषधि की भांति उपकारी है। हे त्रिलोकनाथ, मेरा मन सदैव आपमें संलग्न रहता है मानो वह उसमें सिलाई किया गया है, बैठाया गया है, जोड़ा गया है इस भांति है।' (श्लोक २९२-३००)
इस तरह भगवान् की स्तुति कर उनके समीप रहने की इच्छा प्रकट कर शक और अन्यान्य इन्द देवों सहित अपने-अपने प्रावास को लौट गए।
(श्लोक ३०१) दूसरे दिन पारने के लिए प्रभु उसी नगरी के राजा सुरेन्द्रदत्त के घर गए। प्रभु को आते देख राजा सुरेन्द्रदत्त उठकर खड़े हो गए, वन्दना की और 'प्रभु, ग्रहण करें' कहकर क्षीरान्न प्रभु को बहराया। प्रभु ने उस निर्दोष अचित्त ग्रहणयोग्य आहार को अपने कर-पात्र में ग्रहण किया । रसपूर्ण आहार-ग्रहण में निःस्पृह प्रभु ने मात्र उतना ही ग्रहण किया जितना जीवन धारण के लिए प्रयोजनीय था। इस दान को देने से दान देने वाले का भाग्योदय हो गया। आकाश में दिग्गजों के वृहंतिनाद की भाँति देव-दुदुभि बजने लगी। टूटी हुई माला से जिस प्रकार मणियाँ गिर पड़ती हैं उसी भाँति आकाश से रत्न-राजि की वर्षा हुई। नन्दनवन के सुरभियुक्त पुष्प भी बरसे । देव जैसे एक सूत्र में ग्रथित हो इस भाँति अपने उत्तरीय को लहरा कर 'अहो दान ! अहो दान !' बोलने लगे। सुरेन्द्रदत्त ने जिस स्थान पर प्रभु ने पारणा किया था, रत्न-जड़ित सुवर्ण पादपीठ का निर्माण करवाया और उसी पादपीठ की प्रभु के साक्षात् चरणों की तरह सुबह, मध्याह्न एवं सायं पूजा करने लगा। बिना पूजा किए वह किसी भी प्रकार का आहार ग्रहण नहीं करता। (३०२-३१०)
उस स्थान का परित्याग कर प्रभु चौदह वर्षों तक प्रव्रजन करते रहे। उस समय वे ग्राम, नदीपथ और स्थलपथ युक्त ग्राम, नगर, खान, दरिद्र ग्राम, प्राकारों से घिरा नगर, विच्छिन्न नगर, नदीपथ और स्थलपथ युक्त नगर और अरण्य में अणगार रूप में विभिन्न व्रतों से संयत होकर, बाईस परिषहों को सहन करते हुए, तीन गुप्ति, पाँच समिति धारण कर, मौनावलम्बी होकर, निर्भय, दृढ़-प्रतिज्ञ और नासाग्र दृष्टि धारे हुए विचरते रहे।
(श्लोक ३११-३१३)