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आहार-ग्रहण के लिए जिस प्रकार मयूर वृक्ष से नीचे उतरता है उसी प्रकार जगदगुरु रत्न-जड़ित शिविका से नीचे उतरे । फिर शरीर पर धारण की हुई समस्त मालाएं और अलङ्कारों को उतार दिया। तभी इन्द ने उनके कन्धे पर देवदृष्य वस्त्र रखा। अग्रहण मास की पूर्णिमा को चन्द जब मृगशिरा नक्षत्र में था तब दिवस के अन्तिम प्रहर में प्रभु ने दो दिनों के उपवास के पश्चात् पूर्वाजित प्रास्रव की तरह मस्तक के केशों को उत्पाटित किया। उन केशों को इन्द्र ने अपने उत्तरीय में ग्रहण किया और तत्क्षण यज्ञावशेष की तरह उन्हें क्षोर-समुद्र में निक्षेप कर दिया । द्वाररक्षक की भांति उन्होंने हाथ के इशारे से देव, असुर व मनुष्यों द्वारा होने वाले शब्दों को बन्द करवा दिया। (श्लोक २८२-२८७)
___ 'मैं समस्त प्रकार के सावद्य कर्मों का परित्याग करता हैं' कहकर सम्भव स्वामी ने देवादि सभी के सम्मुख चारित्र ग्रहण कर लिया। तभी उन्हें केवलज्ञान की अमानत की भांति मन:पर्याय ज्ञान उत्पन्न हुना। उस समय नरकाग्नि में सर्वदा दुःख भोग करने वाले नारकी जीवों को भी मुहर्त भर के लिए शान्ति प्राप्त हुई। एक हजार राजानों ने अपने राज्य को तृणवत त्याग कर प्रभु के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली।
(श्लोक २८८-२९१) तब इन्द ने करबद्ध होकर उनकी वन्दना की और भक्तिप्लुत कण्ठ से उनकी स्तुति करने लगे
'हे चार ज्ञान के धारी, चार प्रकार के धर्म के प्रवर्तक, चार प्रकार की गतियों के जीवों को प्रानन्द प्रदानकारी, आपकी जय हो। हे तीर्थपति, हे त्रिलोकनाथ, भरत क्षेत्र के जिन-जिन स्थानों पर जङ्गम तीर्थ की भांति प्राप विचरण करेंगे वे सभी स्थान धन्य हैं। आप इस पार्थिव देह में रहते हुए भी पार्थिव देह से अस्पृष्ट हैं। कीचड़ में उत्पन्न होने पर भी कमल कभी कर्दम-लिप्त नहीं होता। आपके चार महाव्रत, जो तलवार की भांति कर्म का छेदन करते हैं, उनकी जय हो । यद्यपि अाप अनुराग-मुक्त हैं, फिर भी पाप अनुकम्पामय हैं, यद्यपि परिग्रहहीन हैं, फिर भी अनन्त शक्ति के अधिकारी हैं, यद्यपि पराक्रमशाली हैं, फिर भी सर्वदा शान्त हैं, यद्यपि साहसी हैं फिर भी संसार के भयों से भीत हैं। हे मुक्तिदाता, सर्वत्र विचरणकारी, आप जिसके घर पारणा करेंगे