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से सम्भव स्वामी को स्नान कराया। सुवर्ण दर्पण-सी देवाधिदेव प्रभु की सिक्त देह को देवों ने देवदुष्य वस्त्र से पोंछा। भक्ति भरे देवों ने गो-शीर्ष चन्दन का उनके शरीर पर लेपन किया और सूक्ष्म परिधान एवं अलकारों से उन्हें विभूषित किया। प्रभु को देवों ने पृथ्वी के सर्वस्व रूप हीरों का किरीट पहनाया व कानों में कर्णाभरण। देखकर लगा जैसे वे मेघमुक्ता द्वारा निर्मित हों। गले में मोती की लड़ियों का हार पहनाया जो कि निहार पर्वत से गिरती गङ्गा-सा लग रहा था। हाथों में अङ्गद पहनाए। वे सूर्य और नक्षत्रों द्वारा बने हों ऐसे लग रहे थे । पावों में जो नुपूर पहनाए उन्हें देखकर ऐसा लगा जैसे पद्मनाल को वलयाकृत कर दिया गया है। राजाओं ने तब सिंहासन और पादपीठ सह एक शिविका उनके लिए निर्मित करवाई जिसका नाम रखा सिद्धार्थ । अच्युतेन्द्र ने भी पाभियोगिक देवों द्वारा एक शिविका का निर्माण करवाया जो देखने में वैमानिक देवों के इन्द्र विमान-सा था। अच्युतेन्द्र ने तब स्व-निमित शिविका को राजानों द्वारा निर्मित शिविका में इस भांति स्थापित करवा दी जिस प्रकार चंदन-काष्ठ में अगुरु संस्थापित होता है । हंस जिस तरह पद्म पर प्रारोहण करता है वैसे ही सम्भव स्वामी भी देवों की सहायता से शिविकास्थित सिंहासन पर प्रारूढ़ हए। रथ के अश्वों की भांति शिविका का अग्रभाग नरेन्दों ने उठाया, घनवात जिस प्रकार पृथ्वी को धारण करती है उसी प्रकार पीछे का भाग देवेन्द्रों ने उठाया।
(श्लोक २६०-२७५) मेघ की भांति चहुँ प्रोर वादित्र बजने लगे, गन्धर्वगण कानों को अमृत-तुल्य लगे ऐसे गीत गाने लगे, अप्सराएं विभिन्न अङ्गभङ्गिमा में नृत्य करने लगी, चारण आवृत्ति करने लगे, ब्राह्मण मन्त्र-पाठ करने लगे, कुलवद्धाएँ मांगलिक गान गाने लगी और अभिरमणियां भी गीत गाने लगीं। देवगण आगे-पीछे और दोनों पार्श्व में अश्व की भांति दौड़ने लगे। पद-पद पर नागरिकों का अभिनन्दन ग्रहण करते और अपनी अमृत तुल्य दृष्टि से पृथ्वी को आनन्दित करते हुए प्रभु उदार दृष्टि से चारों ओर देखने लगे। देव उन्हें चंवर बीज रहे थे, देव उनका छत्र पकड़े हुए थे। इस प्रकार स्वामी श्रावस्ती नगरी के सहस्राम्र वन में पहुंचे।
(श्लोक २७६-२८१)