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तदुपरान्त प्रभु प्रतिमा धारण कर सहस्राम्रवन के शालवृक्ष के शुक्ल ध्यान के द्वितीय पाद में अवस्थित हुए । जब वे ध्यान में अवस्थित थे वृक्ष के शुष्क पत्तों की तरह चारों घाती कर्म झड़ पड़े । कार्तिक कृष्णा पंचमी के दिन जबकि चन्द्र मृगशिरा नक्षत्र में था तब बेले की तपस्या में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । अब वे भूत, भविष्य, वर्त्तमान को देखने लगे । उस समय नारकी जीवों ने भी एक मुहूर्त्त के लिए परमधार्मिक स्थान और एक दूसरे के द्वारा उत्पन्न दुःखों को भूलकर शान्ति प्राप्त की । देव और असुरों के समस्त इन्द्रों के आसन कम्पायमान होने से प्रभु के समवसरण उत्सव का उद्यापन करने वहाँ उपस्थित हुए ।
( श्लोक ३१४-३१८)
एक योजन परिमाण भूमि को वायु कुमार देवों ने तीव्र वायु द्वारा परिष्कृत कर दिया । मेघकुमार देवों ने वारि-वर्षण कर समवसरण के लिए उस भूमि को मार्जित किया । व्यंतर देवों ने उस भूमि को रत्न और सुवर्ण जड़ित शिलाओं से आवृत्त कर उस पर पंचवर्णीय पुष्पों की वर्षा की। उन्होंने चारों दिशाओं की प्रत्येक दिशा में छत्र, पताका, स्तम्भ मकर-मुख आदि से सुशोभित चार तोरण स्थापित किए । भवनपति देवों ने मध्य भाग में रत्न जड़ित एक वेदी का निर्माण किया, जिसके चारों ओर स्वर्ण शिखर युक्त रौप्य प्राकार का भी निर्माण किया । ज्योतिष्क देवों ने रत्न - शिखर युक्त सुवर्ण की एक मध्य प्राकार निर्मित की मानो वह धरती रूपी वधू की मेखला हो । तदुपरान्त वैमानिक देवों ने हीरों जड़ी रत्नों की ऊर्ध्व प्राकार निर्मित की । प्रत्येक प्राकार में चार अलंकृत द्वार रखे गए । द्वितीय प्राकार के मध्य में उत्तर-पूर्व की ओर एक वेदी का निर्माण किया । ऊर्ध्व प्राकार के मध्य स्थान में व्यंतर देवों ने दो कोस और एक सौ आठ धनुष ऊँचे एक चैत्य वृक्ष का निर्माण किया । चैत्य वृक्ष के नीचे रत्न खचित वेदी पर उन्होंने एक मंच बनाया । और इसके ठीक बीच में पूर्वाभिमुख पाद- पीठ सहित रत्न - - जड़ित एक सिंहासन स्थापित किया । उस मंच पर तीन श्वेत छत्र स्थापित किए । दोनों ओर दो यक्ष चन्द्रिका - से शुभ्र श्वेत चँवर धारण कर स्थित हो गए । समवसरण के सम्मुख तीर्थपति धर्म - चक्रवर्ती हैं यह समझाने के लिए व्यंतर देवों ने एक उज्ज्वल धर्मचक्र स्थापित किया । (श्लोक ३२०-३३०)